गांववासियों को दिखाई बालिका-साक्षरता की राह

teachinggirlchild_11_10_2015गांव में स्कूल तो खुल गया था, पर कोई ग्रामवासी अपनी लड़कियों को पढ़ने भेजने के लिए तैयार नहीं था। मुख्याध्यापिका लोगों को समझाने का प्रयास करतीं। पर समझना तो दूर, लोगों में आक्रोश बढ़ता जा रहा था। एक दिन गांव के मुखिया के नेतृत्व में तमाम ग्रामवासी स्कूल तक जा पहुंचे। देखा कि मुख्याध्यापिका अपने सहयोगियों के साथ चरखा कात रही थी।

गांववाले रोष में बोले – ‘हम तुम सबको यहां से निकालने आए हैं!” मुख्याध्यापिका ने कहा – ‘पर क्या मेरा जुर्म बताने की कृपा करेंगे?” गांव का मुखिया बोला – ‘जुर्म! तुम हमारे परिवार को बिगाड़ने आई हो। हम अपनी लड़कियों को पढ़ा-लिखाकर मेम नहीं बनाना चाहते।” यह सुनकर मुख्याध्यापिका ने कहा – ‘तो क्या विदेशी महिलाएं-बालिकाएं ही पढ़ती हैं? यदि आप समझते हैं कि प्राचीन भारत में नारियां अपढ़, गंवार होती थीं, तो यह आपकी भूल है। याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी गंवार कैसे होगी? बिना पढ़े घोषा, अपाला शास्त्र-मर्मज्ञ कैसे बनीं? अपढ़ कुंती युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन को कैसे गढ़ती? ये सभी सुशिक्षित, सुसंस्कृत थीं, तभी तो स्वयं के साथ समूचे परिवार व समाज की उन्न्ति में सहायक बन सकीं।”

प्रभाव पड़ता देख उन्होंने कुछ देर रुककर पुन: समझाना शुरू किया – ‘विधर्मी वही बनेगा, जिसे अपने धर्म का ज्ञान नहीं, उस पर गौरव नहीं। जिन्हें वेद-उपनिषदों के उदात्त सत्य, ऋषियों के क्रांतिकारी जीवन का सौंदर्य मालूम है, वह विधर्मी क्यों बनने लगा? पर यह मालूम तभी होगा, जब व्यक्ति शिक्षित हो।” बातें सटीक थीं। गांववासियों ने भूल समझी और अपनी बालिकाओं को भी स्कूल भेजने के लिए हामी भर दी।

पर मुख्याध्यापिका को इतने से संतोष नहीं था। बचे समय में वह घर-घर जातीं और सफाई, शिष्टाचार, सद्व्यवहार की सीख देने के अलावा दोष-दुष्प्रवृत्तियों से होने वाली हानियां बताकर उन्हें छोड़ने का आग्रह करतीं। उनकी बातों से महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी प्रभावित होते। साक्षरता की यह देवी थीं, गांधीजी की सहयोगिनी दुर्गाबाई देशमुख, जिन्होंने अपने प्रयत्नों से सिद्ध कर दिया कि यदि किसी के भीतर सेवा की टीस उभरे तो आज भी ग्रामीण जीवन में सुख-शांति व सहकार की वह चमक पैदा की जा सकती है, जो दूसरों को चमत्कृत कर दे।

 
 
 

 

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