क्या हम तीसरा विश्वयुद्ध लड़ रहे हैं ?

उत्कर्ष सिन्हा

पहली बार में शायद ये बात एक दूर की कौड़ी लगे, मगर इसे मानने की कई वजहें बन रही है।
बीते करीब 70 दिनों से दुनिया करीब करीब ठप पड़ी हुयी है, दर्जनों देश आपातकाल का सामना कर रहे हैं और लोगबाग अपने घरो में कैद हैं। जरूरी चीजों की किल्लत न हो इसके लिए सरकारें जूझ रही हैं, लोगो से अपने खाने पर भी नियंत्रण करने के सन्देश सोशल मीडिया पर चलने लगे हैं। राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्र के नाम सन्देश दे रहे हैं ।
हर युद्ध काल में करीब करीब ऐसा ही होता है। दुनिया ने इसके पहले 2 बड़े युद्ध देखें है। पहले युद्ध में आग उगलने वाले टैंक और दूसरे युद्ध में परमाणु बम जैसे हथियारों से निर्णायक भूमिका निभाई, लेकिन इसके बाद हर समर्थ मुल्क ने अपने पास हथियारों का इतना बड़ा जखीरा खड़ा कर लिया कि आमने सामने लड़ना मुश्किल हो गया।

हर काल खंड में युद्ध के अपने कारण होते हैं । और हर बड़े युद्ध के बाद एक नयी और पहले से ज्यादा प्रभावी व्यवस्थाएं बनायीं जाती है , जिससे अगला युद्ध रोका जा सके । लेकिन महाशक्तियों की भूख हर व्यवस्था को समय समय पर ठेंगा दिखती रही है।
थोड़ा इतिहास में चलते हैं
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लम्बे समय तक शीत युद्ध चला और फिर सोवियत यूनियन का पतन करने के बाद अमेरिका दुनिया का इकलौता चौधरी बन गया। ठीक इसी वक्त दुनिया पर वर्चस्व के लिए भूभाग से ज्यादा अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा करना सफलता का पैमाना बनने लगा। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए विश्व व्यापार संगठन ने दुनिया की संरचना को बदलना शुरू कर दिया और व्यापार पर वर्चस्व सर्वोपरि होने लगा।
बीसवीं सदी के नौवे दशक में हुए अमेरिका इराक युद्ध के पीछे भी तेल पर कब्जा करने की नीयत ही थी और सीरिया और लीबिया में चलने वाले लबे छाया युद्ध की वजह भी तेल के कुओं पर कब्ज़ा करना ही था।
सोवियत यूनियन के पतन के बाद रूस को फिर से खड़ा होने में करीब 25 साल लग गए और तब तक दुनिया का आर्थिक संतुलन अमेरिका और चींन के बीच सिमट कर रह गया।
दोनों ही देशो ने अपने व्यापार को इस आक्रामक तरीके से बढाया कि एक वक्त पर ट्रेड वार की बाते होने लगी। अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी हेकड़ी भरी शैली में चींन पर तमाम टैक्स लगाने शुरू कर दिए, बदले में चींन ने भी अमेरिका को कुछ झटके दिए।

अब बात युद्ध के नए हथियारों की की जाए 
पत्थर के हथियार से आगे बढ़ कर परमाणु हथियारों तक पहुँचाने के बाद शस्त्र की सीमा करीब करीब समाप्त हो चुकी है।बदलते वक्त में कम्पूटर डेटा भी एक हथियार बन चूका है जिसके जरिए विरोधी देश को समय समय पर झटके दिए जाते रहे हैं।
जैविक हथियार या बायो वीपन भी कुछ ऐसा ही है । बायोवीपन वैसे तो कोई नया प्रयोग नहीं है, समय समय पर इसके नए नए रूप सामने आते रहे हैं।

हिटलर के गैस चेंबर भी यही बायो वीपन थे और कुछ साल पहले सार्स नाम की बीमारी जब फैली तब भी विशेषज्ञों ने इसके बायो वीपन होने का शुबहा जाहिर किया था ।
अब थोड़ी कांस्पीरेसी थियरी को समझा जाए 
करीब 10 महीन पहले आई एक खबर इस वक्त अचानक महत्वपूर्ण लगने लगी है। खबर ये थी कि कनाडा के एक माईक्रो बायलोजी लैब से चीन के एजेंटो ने एक फार्मूले के 9 वायल चुरा लिए थे। यह एक बायो वीपन के रूप में प्रयोग किया जा सकने वाला विषाणु था।
इनमे से एक कुछ दिन बाद 7 वायल के साथ रूस में पकड़ा गया। दूसरा एजेंट 2 वायल के साथ फरार हो गया। विशेषज्ञों का मानना है कि चीन ने इस फार्मूले को ही वुहान के एक लैब में डेवलप करना शुरू कर दिया।
इसकी भनक जब अमेरिकी खुफिया एजेंसी को लगी तो उन्होंने इस लैब तक अपनी पहुँच बनाई और इस विषाणु को वहीँ बर्स्ट कर दिया। चीन के लिए एक बड़ा झटका था। उसका प्रमुख व्यापारिक केंद्र बर्बाद हो गया और चीनी अर्थव्यवस्था को एक बड़ा झटका तात्कालिक रूप से लगा । इसका असर उन देशो पर भी पड़ना शुरू हो गया जो चींन से आयात पर निर्भर थे। लेकिन कहानी यही नहीं रुकी।
पहले यूरोप और फिर अमेरिका में यह विषाणु तेजी से फैला। इटली और स्पेन , ब्रिटेन सबसे ज्यादा तबाह हुए और फ़्रांस पर भी बड़ा असर पड़ा। यूरोप की अर्थव्यवस्था को भी बड़ा झटका लगा । और फिर रही सही कसर अमेरिका में तेजी से फैलते वायरस ने पूरी कर दी।
दुनिया भर के शेयर मार्किट में भयंकर गिरावट का दौर शुरू हो गया और फिर चुपचाप शेयरों की खरीद सस्ते दरो पर होने लगी। दुनिया भर के बड़े रईसों को अरबो रुपये का घाटा हुआ और इसके साथ ही साथ उनकी कंपनियों पर से उनका नियंत्रण भी कमजोर हो गया। ये सिलसिला अभी जारी है ।

इस बीच चीन शुरुआती झटके से उबार चुका है और उसने अपने डाक्टरों की टीम कुछ देशो में मदद के लिए भी भेजना शुरू कर दिया है। चीन के बिजनेस टायकून जैक मा ने अरबो डालर करोना से लड़ने के लिए लगा दिए हैं।
यह युद्ध काल में सामने आने वाला वो मानवीय चेहरा है जिसके जरिये भविष्य में देशो से अपने रिश्ते मजबूत बनाये रखे जा सकते हैं,लेकिन इस समय काल में जिस चीज में सबसे ज्यादा बद्लाव आया है वो ये कि दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियों के शेयर होल्डर्स बदल रहे हैं।
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि सबसे ज्यादा खरीदारी चीन के लोगो और कंपनियों ने की है। जिसका साफ़ मतलब है इन कंपनियों पर चीन का नियन्त्रण। आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में जीत और हार का फैसला भी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के जरिये ही होगा, न की भूभाग पर कब्जे के जरिये।
अब लेख की पहली लाईन को फिर से पढ़ना जरूरी है। 

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