कोरोना पलायन हुआ या कराया गया, क्या है केजरीवाल कनेक्शन

अभिज्ञान शेखर
केन्द्र सरकार ने दिल्ली में कोरोना लॉकडाउन का पालन न करा पाने के आरोप में 2 आईएएस अफसरों को सस्पेंड कर दिया है। दो और अफसरों पर तलवार लटकी हुई है। हालांकि सस्पेंशन आदेश में किसी खास घटना का ज़िक्र तो नहीं है लेकिन सूत्रों के मुताबिक मामला लॉकडाउन के बीच मजदूरों के दिल्ली से पलायन और आनंद विहार बस अड्डे पर 27-28 मार्च को जमा हुई लाखों की भीड़ का ही है।
ये भी पढ़े: अमेरिका में कोरोना से दो लाख मौत की बात क्यों कही जा रही है?
इस भीड़ को न ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की अहमियत का अंदाजा था न लॉक डाउन के ‘वायलेशन’ का अहसास। मजदूरों की इस भीड़ को पहली कोशिश में अपने घर– अपने लोगों के बीच पहुंचने की बेचैनी थी। किसी भी सवाल के जवाब में बस जबान पर एक ही जुमला था-
‘मरना तो है ही- भूख से मरें, थकान से मरें या फिर कोरोना से!’

बहरहाल केन्द्र सरकार ने अफसरों के खिलाफ जो एक्शन लिया है उसका आधार दिल्ली पुलिस की वो एफआईआर है, जिसमें कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान 44 के करीब बसें यात्रियों को लेकर आनंद विहार बस अड्डे से निकलीं। पूछने पर बस के स्टाफ ने कहा कि ऊपर से आदेश है।
पुलिस ने अपनी गर्दन बचाने के लिए लॉकडाउन तोड़ने की एफआईआर दर्ज कर ली, हर बस का नंबर भी नोट कर लिया। दिल्ली पुलिस की गर्दन तो इससे बच गयी मगर ये एफआईआर दिल्ली के अफसरों के गले की फांस बन गयी। लॉकडाउन वायलेशन की गेंद भी अब यूपी और केन्द्र सरकार की बजाए दिल्ली सरकार के पाले में है।
ये भी पढ़े: नोयडा में CM योगी ने की कोरोना संक्रमण की समीक्षा, डीएम को फटकारा
लेकिन सवाल यहां दूसरा है। आखिर लॉकडाउन के दौरान इतनी भारी भीड़ सड़क पर उतरी कैसे और क्या इसके लिए सचमुच दिल्ली का प्रशासिनक अमला ज़िम्मेदार है। 5 दिन तक अपने घरों में कैद रहे मजदूरों के दिल में घर पहुंच जाने की उम्मीद और बेचैनी अचानक बढ़ी कैसे?
इसकी क्रोनेलॉजी समझने से पहले जरा दिल्ली के उस इलाके की नवैयत समझ लीजिए जहां दिल्ली का आनंद विहार बस अड्डा और रेलवे स्टेशन मौजूद है। दोनों एक दूसरे से इतने लगे हुए हैं कि दोनों के परिसर भी तकरीबन एक ही हैं। दिल्ली को जानने वाले जानते हैं कि आनंद विहार बस अड्डा केवल नाम भर को दिल्ली की जद में है, वर्ना घिरा नोएडा- गाज़ियाबाद से है और यहां मुसाफिर भी वहीं से आते हैं। इनमें बहुतायत यूपी-बिहार के मजदूरों-कामगारों की होती है।
इसीलिए आनंद विहार को पुरबियों/ पूर्वांचलियों के स्टेशन की तरह जाना- सुना जाता है, जो रोजी कमाने के लिए आते तो दिल्ली हैं मगर काम नोएडा-गाज़ियाबाद और साहिबाबाद की फैक्ट्रियों में करते हैं। निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारतों का काम भी इन्हीं इलाकों में ज्यादा है। ये मजदूर- कामगार नोएडा की बस्तियों से लेकर गाज़ियाबाद की खोड़ा कॉलोनी तक बसे हैं।
ये भी पढ़े: संकट एक, प्रतिक्रिया अनेक
तो ये भीड़ पूरी तरह दिल्ली से नहीं आयी थी और ऐसा भी नहीं कि ये तमाम लोग- जिनमें वयस्कों, युवाओं के अलावा बड़ी तादाद में महिलाएं बच्चे और बुजुर्ग भी शामिल थे- पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर की हिजरत के लिए निकल पड़े थे। दरअसल एक उम्मीद अचानक जगी और लोगों को लगा कि वो अपने घर लौट सकते हैं।

तो ये उम्मीद जगी कैसे ?
इस सवाल का जवाब शायद आपको यूपी के बुलंदशहर बॉर्डर पर मिलेगा। वहां दिल्ली-एनसीआर की ओर से लोगों के जत्थे पैदल चले आ रहे थे। तब ये भीड़ में नहीं बदले थे, मगर पुलिस उन्हें रोकने और पूछताछ करने की बजाए खाने के पैकेट थमा रही थी। मौके पर एसएसपी संतोष कुमार सिंह खुद मौजूद थे। वहां टीवी कैमरे भी बुला लिए गए और संतोष कुमार सिंह ने उत्साहित होकर बयान दिया कि, नोएडा- गाज़ियाबाद- दिल्ली से पैदल आ रहे लोगों को हम भोजन दे रहे हैं। यही नहीं वो यहां तक कह गए कि इन लोगों के आगे जाने के लिए हम वाहन की व्यवस्था भी करा रहे हैं।
ये भी पढ़े: गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोग अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखें
हालांकि संतोष सिंह इस पर खामोश थे कि उन्हें इसका निर्देश कहां से मिला, लेकिन चैनलों ने इसे पुलिस के मानवीय चेहरे की तरह पेश किया। उस पुलिस का मानवीय चेहरा जो दूसरी ओर लॉकडाउन में लोगों पर लट्ठ बजा रही थी, ये तस्वीरें भी पब्लिक डोमेन में मौजूद थीं। बीजेपी की मीडिया आर्मी तो इस पिटाई को भी दवाई की तरह पेश कर रही थी, जो जनता की कोरोना से हिफाजत के लिए जरूरी थी। जबकि सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहे थे कि जिन बाकी देशों में लॉकडाउन है वहां तो पुलिस पिटाई नहीं कर रही!
खैर अब आइए रुख करते हैं राजधानी लखनऊ का। पता नहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की संवेदनाओं का बांध टूट गया या फिर उन्हें अपने ही अफसरों को टीवी पर देख कर कोई आईडिया कौंधा। लॉकडाउन से बेपरवाह योगी का बयान आया कि हमने अधिकारियों से कह दिया है कि पैदल जा रही जनता की सुविधा का ख्याल रखें। उन्हें उनके घर भेजने का इंतजाम करें।
हजार बसें लगाने की खबर भी आने लगी और गाज़ियाबाद के लालकुआं से बसों के प्रस्थान की भी। गाज़ियाबाद के डीएम का तो बाकायदा लिखित आदेश सोशल मीडिया पर घूम रहा है। 27 की सुबह तक योगी के बिहार और उत्तराखंड सरकार से बातचीत करने की भी खबर आ गयी। इन खबरों का घमंजा दिल्ली-एनसीआर में आग की तरह फैला।
ये भी पढ़े: लॉकडाउन : छह दिन में हुई 20 मौते, जिम्मेदार कौन?
नोएडा के एक गांव में रहने वाले लंबरदार यादव बताते हैं कि उनके गांव में रह रहे पूर्वी उत्तर प्रदेश के मजदूर-कामगार तब तक सहमे हुए खामोश बैठे थे। आशंकाएं थीं लेकिन घर वापसी की कोई राह नहीं दिख रही थी। हां, नोएडा-गाज़ियाबाद से सटे इलाकों मसलन बुलंदशहर, हापुड़, खुर्जा, मेरठ, वगैरह के लोग पैदल घर वापसी का रिस्क ले रहे थे जो अपेक्षाकृत आसान था।

उन्हें रास्ते में कोई साधन मिल जाने की उम्मीद भी थी, लेकिन योगी के बयान ने तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों में घर वापसी की आग लगा दी और वो भी सामान बांधने लगे। 27 की शाम तक तक वो नज़ारा सामने आया जो 28 मार्च की रात तक आनंद विहार बस अड्डे और फुट ओवर ब्रिज पर बेलगाम भीड़ की शक्ल में दिखा।
केंद्र और यूपी की योगी सरकार पहले तो ये सब अवाक देखती रही, क्योंकि ये तस्वीरें लॉकडाउन की मंशा का खुला मखौल थीं। अचानक बीजेपी का आईटी/मीडिया सेल एक्टिव हुआ। आनंद विहार बस अड्डे के बहाने मामले को दिल्ली की केजरीवाल सरकार की ओर मोड़ने का खेल शुरु हुआ।
ये भी पढ़े: कनिका ने अपने इमोशनल पोस्ट में क्या लिखा
अपने गिरेबान में झांकने की बजाए कीचड़ दिल्ली सरकार के दामन पर उछाला जा रहा था। बदनाम करने की कोशिश तो उन गरीब मजदूरों को भी की गयी जो बेचारे इस पूरे बवाल में बेवजह फंसे थे। उनकी समस्या क्या है, फिर साइकोसिस क्या है, वो पैनिक में क्यों हैं ? इसे समझने-बूझने की बजाए, बलबीर पुंज जैसे पूर्व पत्रकार पार्टी लाइन की रौ में बहते-बहते कह गए कि मजदूर छुट्टी मनाने घर जाना चाहते हैं।
जाहिर है जिस पर बात नहीं हो रही है वो ये कि, लॉकडाउन का ‘मजबूत’ कदम उठाने की जल्दबाजी में सरकार को उसके व्यापक प्रभावों का अहसास ही नहीं था। दिहाड़ी कमाने वाले ग़रीब मजदूर उसकी वरी लिस्ट (चिंता सूची) में कहीं थे ही नहीं। यही नोटबंदी में भी हुआ था। 8 बजे प्रधानमंत्री अवतरित हुए….और रात 12 बजे से पुरानी करंसी का भाइयों बहनों हो गया।
बिना तैयारी की नोटबंदी का सबसे बड़ा सबूत बैंकों के एटीएम थे, जिन्हें 2000 और 500 के नोटों के हिसाब से कैलीबरेट ही नहीं किया गया था। जब अधिकारियों ने कहा करो- तो बैंकों ने बताया कि ये इतना आसान नहीं है, इसमें बहुत वक्त लगेगा। नतीजा ये कि नए नोट छपने के बावजूद बहुत बाद में एटीएम तक आए और तब तक दर्जनों गरीब बैंको के बाहर जान गंवा चुके थे।
यही कोरोना लॉक डाउन में दिखा, विदेश से तो हम हवाई जहाज से प्रवासियों को ले आए, मगर घर में मौजूद प्रवासी मजदूरों का किसी को ख्याल तक नहीं आया। जब आया तो खुद लॉकडाउन के वायलेशन के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।
ये भी पढ़े: शोध : 21 दिन से नहीं बनेगी बात, लगाना होगा 49 दिन का लॉकडाउन

Back to top button