कोरोना ने दुनिया भर के नेताओं की हेकड़ी निकाल दी 

शिव कांतशिव कांत, पूर्व सम्पादक, बीबीसी, हिंदी रेडियो, लंदन 
“टीका बने या न बने, हम तो लौट आए हैं और काम शुरू कर रहे हैं।” यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ। यह बात अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने कही और जानते हैं कहाँ कही? Operation Warp Speed की ख़बर देने के लिए बुलाए संवाददाता संमेलन में। क्या है Operation Warp Speed? यह है चरम गति से टीका तैयार करने का अभियान, जिसकी तुलना ट्रंप ने दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम बनाने के अभियान से की और इसे युद्ध स्तर पर चलाने के लिए उन्होंने इसका नेतृत्व भी सेना के एक जनरल के हाथों में सौंपा। आप सोचेंगे कि टीका क्या कोई बम है जो धमाके किए और बन जाएगा? एक खाली मंप्स यानी गलगंड का टीका है जो चार साल में बन गया था। बाकी सारे टीकों को बनाने में कम से कम दस साल लगे हैं। तो फिर सैंकड़ों रूप बदल चुके कोविड-19 के इस बहरूपिए वायरस का टीका आनन-फानन में कैसे तैयार हो जाएगा? इसके जवाब में ट्रंप साहब ने कहा कि हम खाली टीके के भरोसे थोड़े ही हैं? और भी तो बहुतेरी बीमारियाँ हैं जो आती हैं और टीकों के बिना ही चली जाती हैं! वैसे ही यह भी छूमंतर हो जाएगा! क्या पता? कल हो न हो!
अर्थव्यस्था का बेड़ा ग़र्क
अब आप सोचेंगे कि यही करना था तो दो महीनों में अर्थव्यस्था का बेड़ा ग़र्क क्यों किया? पहले ही कामकाज खोल कर बैठे रहते, स्वीडन की तरह? आप भी हैं न! समझते नहीं हैं! उस वक़्त चीन में, इटली में, ईरान में और स्पेन में रोज़ सैंकड़ों लोग मर रहे थे पर अमरीका में मरने वालों की गिनती दर्जनों में थी। हवाई यातायात को ट्रंप साहब ने बंद कर लिया था। इसलिए सब कंट्रोल में था। राष्ट्रपति की सीइओ शैली के गुणगान हो रहे थे। किसे पता था कि वायरस 15 लाख से भी ज़्यादा लोगों में फैल जाएगा और 90 हज़ार की जान ले लेगा! चलो उस पर कह देते कि हमारा शुक्र मनाइए कि हमने ताबड़तोड़ क़दम उठा कर मरने वालों की संख्या लाख से ऊपर नहीं जाने दी। वर्ना एंटनी फ़ाउची जैसे वैज्ञानिक लोग तो दस-बीस लाख की बातें कर रहे थे। गड़बड़ ये हुई है कि करीब-करीब चार करोड़ लोग बेरोज़गारी भत्ता माँगने आ खड़े हुए हैं। यानी हर चौथा अमरीकी! ऐसे में चुनाव कैसे जीता जाएगा? टीके का कोई ठिकाना नहीं और नवंबर है कि भागा चला आ रहा है! चुनाव को टालने की बात तो छेड़ी है और जमाईराज कुश्नर ने समर्थन भी कर दिया है, मगर टालना आसान नहीं है!
लोकतंत्र बनाम सेहत या दोनों 
अब खाली अमरीका की बात ही नहीं है। कोविड-19 ने यह दुविधा लगभग हर बड़े लोकतंत्र के सामने खड़ी कर दी है। अपनी सेहत या जेब की सेहत, निजी आज़ादी या बीमारी से आज़ादी, दो में से एक का अंसभव चुनाव करने की दुविधा और दुविधा में दोनों के चले जाने का भी ख़तरा रहता है। दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम। अब स्वीडन की मिसाल ही ले लीजिए। वहाँ सरकार ने कोविड-19 से मुकाबले की बागडोर महामारी विशेषज्ञ डॉ टैगनेल को थमा दी थी। डॉ टैगनेल ने बुज़ुर्गों को घरों में बंद रहने की सलाह देकर बाकी लोगों से कहा कि जहाँ तक हो सके घरों से काम करने और सामाजिक दूरी व साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखें। देश में किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं लगाई। इसके बावजूद स्वीडन महामारी के फैलाव और मरने वालों की संख्या के मामले में ब्रिटन, इटली, स्पेन, बेल्जियम और फ़्रांस जैसे देशों की तुलना में बेहतर रहा। परंतु अर्थव्यवस्था की हालत उतनी ही ख़राब हो गई जितनी बाकी के यूरोपीय देशों की हुई। यानी पाबंदी नहीं लगाने से लोगों की सेहत का ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ तो काई ख़ास आर्थिक लाभ भी नहीं हो सका। तो सवाल आता है कि कौन सी रणनीति कारगर हो सकती थी?
कारगर रणनीति 
केवल दो रणनीतियाँ कारगर हुई हैं। एक तो चीन की रणनीति जिसका मूलमंत्र था कि बीमारी फैलने की ख़बर सुनते ही एक बड़े इलाक़े की पूरी तरह तालाबंदी कर देना और उसे तब तक न खोलना जब तक कि वायरस का फैलना बिल्कुल न रुक जाए। वूहान और हूबे में तालाबंदी करने में थोड़ी देरी इसलिए हुई थी क्योंकि चीन को बीमारी की गंभीरता का अंदाज़ा लगाने में और तालाबंदी की तैयारी करने में थोड़ा समय लगा। लेकिन उसके बाद से चीन ने महामारी पर पैनी नज़र रखी है। पूर्वोत्तर में रूस की सीमा से लगते जीलिन प्रांत में जीलिन और शूलान शहरों को वायरस के मुट्ठी भर केस मिलते ही पूरी तरह तालाबंद कर दिया गया है। वूहान में भी वायरस के इक्के-दुक्के वायरस केस मिले। इसलिए महानगर के सभी 11 लाख निवासियों का 10 दिनों के भीतर टैस्ट करने का काम शुरू कर दिया गया है और आधे टैस्ट किए भी जा चुके हैं। मुश्किल यह है कि चीन वाली तालाबंदी की रणनीति को अमल में लाना लोकतांत्रिक देशों के बस की बात नहीं है।
अब बचती है दक्षिण कोरिया, न्यूज़ीलैंड, ताईवान और वियतनाम की रणनीति जहाँ तालाबंदी के साथ-साथ टैस्ट और ट्रेस की रणनीति भी अपनाई गई। दक्षिण कोरिया ने जिन-जिन इलाकों में वायरस प्रभावित लोग मिलते गए वहाँ बड़ी संख्या में और बड़ी तेज़ी से टैस्ट कराए। टैस्टों में पॉज़िटिव आने वाले लोगों को और उनके संपर्क में आए लोगों को टोह लगा कर, एकांतवास में रखा गया। इससे फैलाव की रोकथाम हो गई। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि न्यूज़ीलैंड को छोड़ कर बाकी दक्षिण कोरिया, ताईवान और वियतनाम जैसे देशों में लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलती है। थाइलैंड और सिंगापुर का हाल भी यही है और हांग-कांग तो चीन का हिस्सा है। इसलिए जो रणनीति इन देशों में कारगर हुई वह अमरीका. यूरोप और भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्रों में पूरी तरह कारगर नहीं हो सकती। इसीलिए टैस्ट और ट्रेस की रणनीति पर चलकर जर्मनी ने मौत का आँकड़ा कम रखने में तो कामयाबी हासिल की लेकिन फैलाव को वह भी नहीं रोक पाया। 
ऐसे में इस्राइल के वाइज़मैन संस्थान के प्रोफ़ेसरों ने एक मॉडल तैयार किया है जिस पर चलते हुए आप कारोबार भी खोल सकते हैं और वायरस से बचे भी रह सकते हैं। हम सब जानते हैं कि यह वायरस लगने के बाद पहले चार दिनों तक, वायरस वाला रोगी वायरस को नहीं फैला सकता। पाँचवें दिन से वह संक्रामक होने लगता है और वायरस फैलाने लगता है। इस्राइली मॉडल इसी पर आधारित है। लोग चार दिनों तक काम पर या स्कूल जाएँ और उसके बाद दस दिनों तक घर पर रहें। घर पर यदि वे बीमार पड़ते हैं तो एकांतवास में चले जाएँ वरना घर से काम करते रहें। दस दिन घर पर बिताने के बाद चार दिनों के लिए फिर काम पर चले जाएँ। इस तरह चार दिन काम और दस दिन घर से काम का चक्र बिना किसी जोखिम के चलाया जा सकता है। ऑस्ट्रिया ने इसमें थोड़ा सुधार करके छात्रों के ग्रुप बना लिए हैं जो बारी-बारी पाँच दिन तक स्कूल जाते हैं और दस दिनों तक घरों से पढ़ते हैं। इस तरह स्कूल भी चल रहा है और बीमारी भी नहीं फैल पा रही। लेकिन इस तरह के मॉडल की कामयाबी के लिए लोगों का सजग और ज़िम्मेदार रहना निहायत ज़रूरी है।
 
कोविड-19 की महामारी की एक ख़ासियत और देखने में आई है कि वह नेताओं की हेकड़ी को कतई बर्दाश्त नहीं करती है। अब हेकड़ी के मामले में ट्रंप साहब के सामने कौन ठहर सकता है। महामारी के शुरुआती दिनों में उनकी हेकड़ी देखने लायक थी। उनको अपने फ़ैसलों की समझदारी, फ़ुर्ती और अमरीका के संसाधनों पर बड़ा नाज़ था। पर महामारी ने दो महीनों के भीतर अमरीका की हालत दुनिया में सबसे दयनीय बना कर उनकी सारी हवा निकाल दी। यही हश्र ब्रज़ील के राष्ट्रपति जाइर बोसोनारो का हुआ। वे खुले आम वायरस को एक हव्वा बता कर उसका मज़ाक उड़ाते थे और सवाल करने पर कहते थे कि क्या कोई जादू-मंतर कर दूँ? मास्क तो वे आज तक नहीं पहनते बावजूद इसके कि ब्रज़ील अब प्रभावितों और मरने वालों की संख्या में दुनिया में पाँचवे स्थान पर आ गया है। राष्ट्रपति पुतिन भी महामारी को गंभीरता से लेने की बजाए संविधान संशोधन के द्वारा आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की जुगत में थे। पर आज रूस महामारी के फैलाव की दृष्टि से अमरीका के बाद दूसरे स्थान पर जा पहुँचा है। उनके प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय प्रवक्ता अस्पताल में हैं और पुतिन साहब अब अपनी डाचा में छिपे रहते हैं। तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन का नाम भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। कहाँ तो भारत को मानवाधिकारों के उपदेश देते फिरते थे। कहाँ डेढ़ लाख लोगों के बीमार होने, 4100 के मारे जाने और देश की अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ जाने के बाद अपनी कुर्सी बचाने के फेर में पड़ गए हैं।
जहाँ तक कुर्सी बचाने की बात है तो महामारी के इस संकट के दौरान यूरोप में एक ऐसा कांड हुआ है जिसको लेकर लोग नाराज़ तो हैं लेकिन इतने नहीं कि नेताओं की कुर्सी चली जाए। दुनिया में कोविड-19 से मरने वाले कुल लोगों में से लगभग आधे अमरीका और यूरोप के हैं और इनमें से एक बड़ी संख्या वृद्धाश्रमों में रहने वाले बुज़ुर्गों की है। विडंबना की बात यह है कि महामारी को रोकने के लिए कड़ी पाबंदियाँ और सामाजिक दूरी रखने के नियमों को यह कहकर लागू किया गया था कि बुज़ुर्गों की जीवन रक्षा के लिए ये निहायत ज़रूरी हैं। यही कारण देकर लोगों को अपने बुज़ुर्गों से मिलने वृद्धाश्रम जाने से भी रोका गया था। केवल सेवाकर्मी ही देखभाल के लिए जाते थे। उन्हीं के ज़रिए महामारी भी वृद्धाश्रमों में चली गई और ऐसी फैली कि कुछ देशों जैसे बेल्जियम में मरने वाले आधे लोग वृद्धाश्रमों के ही निकले। इटली, स्पेन, फ़्रांस और ब्रिटन में हर तीसरी मौत वृद्धाश्रम वालों की हुई है। अमरीका में उनकी मौत का अनुपात और भी ज़्यादा हो सकता है और स्वीडन में मारे गए साढ़े तीन हज़ार लोगों में से आधे वृद्धाश्रमों के ही थे। सेवाकर्मियों का आरोप है कि उन्हें पीपीई या बचाव के लिए ज़रूरी मास्क और गाऊन जैसा सामान नहीं दिया गया और न ही उनके वायरस टैस्ट किए गए। नतीजा यह हुआ कि बुज़ुर्गों की हिफ़ाजत के लिए बने वृद्धाश्रम उनके लिए मौत के पिंजरे साबित हुए। सरकारों के पास इस कांड पर माफ़ी माँगने के अलावा और कोई स्पष्टीकरण नहीं है।
बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर भी एक चिंता
बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर भी एक चिंताजनक कांड सामने आ रहा है। महामारी के दौरान यह मान लिया गया था कि बच्चों पर वायरस का ख़ास असर नहीं होता है। फिर भी बच्चों को वायरस से बचा कर रखने की ज़रूरत इसलिए समझी गई ताकि वे उसे बड़ों तक न फैला सकें। लेकिन अब अमरीका और यूरोप के देशों से बच्चों में एक ऐसी रहस्यमय बीमारी फैलने की ख़बरें मिल रही हैं जिसके लक्षण कावासाकी बीमारी जैसे हैं जो इम्यून सिस्टम की ख़राबी से होती है। बच्चों को तेज़ बुख़ार होता है, बदन पर रैश या चिकत्ते निकलते हैं, धमनियों में सूजन आ जाती है और दिल, जिगर और गुर्दे ख़राब होने लगते हैं। बच्चों का इम्यून सिस्टम या रोगरक्षा प्रणाली अपने ही शरीर पर हमला करने लगती है। इसमें कोविड-19 की क्या भूमिका है इस पर अभी और शोध होना बाक़ी है। लेकिन इन बच्चों में से ज़्यादातर के शरीरों में कोविड-19 के एंटीबॉडी पाए गए हैं। अमरीका, फ़्रांस, ब्रिटन और यूरोप के दूसरे देशों में कम से कम ढाई सौ बच्चे इस बीमारी का शिकार हो चुके हैं। यदि इसकी वजह कोविड-19 ही साबित हुई तो कोविड-19 आगे चल कर बड़े लोगों में भी इसी तरह की कई दूसरी बीमारियों का कारण बन सकता है।
ध्यान फिर आर्थिक बर्बादी पर 
जो भी हो, धीरे-धीरे दुनिया का ध्यान अब कोविड-19 की महामारी से हटकर उससे हुई आर्थिक बर्बादी पर केंद्रित हो रहा है। हर देश अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए अपने हिसाब से प्रयोग कर रहा है। चीन समेत एशिया और पूर्वी एशिया के ज़्यादातर देशों ने हवाई यातायात को छोड़ कर बाकी पाबंदियाँ हटा ली हैं। यूरोप में भी धीरे-धीरे बाज़ार और कारोबार खुलने लगे हैं। अमरीका में ट्रंप और उनके समर्थकों की राजनीति की वजह से देश में दो धड़े हो गए हैं। ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी की सत्ता वाले राज्य और ज़िले सारी पाबंदियाँ हटाने पर आमादा हैं जबकि विपक्षी डैमोक्रेटिक पार्टी शासित राज्य और ज़िले महामारी से बचे रहने के लिए फूँक-फूँक कर कदम रखना चाहते हैं। लेकिन उन प्रवासी और दिहाड़ी मज़दूरों की चिंता किसी पार्टी को नहीं है जिनके पास न घर बचे हैं न नौकरी। बेरोज़गारी भत्ता तो छोड़िए, वीज़ा बनाए रखने के लाले पड़ गए हैं। 
यूरोप और खाड़ी के देशों में भी प्रवासी मज़दूरों की यही दशा है। लेकिन भारत और दूसरे दक्षिण एशियाई देशों जैसी दशा शायद कहीं नहीं है। यह सही है कि भारत सरकार क्या दुनिया की कोई भी सरकार एक से दो करोड़ प्रवासी मज़दूरों के टैस्ट करा कर उन्हें सामाजिक दूरी पर रखते हुए रेल और बसों से घर नहीं भिजवा सकती थी। लेकिन तालाबंदी के खुलने और उनके काम पर लौटने तक उनको पैसा देकर उनके रहने-खाने की व्यवस्था तो कर ही सकती थी। एक से दो करोड़ प्रवासी मज़दूरों की बात भी कर लें तो 10 से 20 हज़ार करोड़ रुपए महीने के ख़र्च पर इन्हें सड़कों पर ठोकरें खाने और अपने साथ वायरस को फैलाने से बचाया जा सकता था। 200 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था में क्या एक-दो महीने एक-दो करोड़ बदहाल लोगों का गुज़र चलाने के लिए अर्थव्यवस्था के एक हज़ारवें हिस्से की गुंजाइश भी नहीं थी? 
ये लोग जहाँ काम करते थे और रहते थे उन लोगों की और हमारे समाज की तो बात ही क्या करें! संकट के समय तो दुश्मन भी मदद को आ जाते हैं। इन लोगों से जब तक चाहा काम लिया और फिर फ़ोटो खींच-खींच कर उनके हाल पर छोड़ दिया। 
ट्रक पर चढ़ने की कोशिशरही सरकार की बात! तो जब उस पर ताने कसे जाने लगे कि विदेशों में फँसे प्रवासियों को तो आप विमान और जहाज़ भेज-भेज कर ला रहे हैं। और यहाँ देश में फँसे हुए मज़दूरों के लिए रेल तक नहीं चला सकते? तब जाकर कुछ लोगों के लिए रेल और बसें चलाई गईं। 
फिर भी बहुतेरे पैदल और न जाने कैसे-कैसे जुगाड़ कर लदे-पदे जा रहे हैं। अब इनको लगता है कि ये अपने घरों को जा रहे हैं क्योंकि बदहाली ने इन्हें हताश कर रखा है। लेकिन यह तो वक़्त ही बताएगा कि ये अपने घर जा रहे हैं या यमराज के घर जा रहे हैं। क्योंकि निश्चय ही इनमें से कुछ के साथ वायरस भी जा रहा होगा और जहाँ ये जा रहे हैं वहाँ न तो अस्पताल हैं, न टैस्ट की व्यवस्था और न ढंग का इलाज। लेकिन मज़दूरों के पास और विकल्प ही क्या था? ताहिर तिलहारी साहब का एक शेर हैः
कुछ ऐसे बदहवास हुए आँधियों से लोग,
जो पेड़ खोखले थे उन्हीं से लिपट गए।

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