कोरोना के साइड इफेक्ट : केरल से सोनागाछी तक…

कैबिनेट सचिव राजीव गाबा ने कोरोना वायरस के कारण देश भर में लाॅक डाउन 14 अप्रैल से आगे बढ़ाने की संभावना से इंकार भले कर दिया हो, लेकिन लोग अभी भी आश्वस्त नहीं हैं। सरकारों का जोर भी इसी बात पर है कि लाॅक डाउन‍ जितनी सख्ती से लागू रहे, उतना अच्छा। क्योंकि कोरोना को थामे रखने का फिलहाल यही उपाय है। इस बीच कोरोना के कई साइड इफेक्ट्स भी सामने आ रहे हैं। दिल्ली के दिहाड़ी मजदूरों जैसी समस्या अब केरल और अन्य राज्यों में भी सिर उठा रही है। वहां नई दिक्कत उन पियक्कड़ों की आत्महत्या के कारण भी पैदा हो रही है, जिनके लिए ‘न पीना ही मर जाना’ है। एक और समस्या उन सेक्स वर्कर्स की है, जिनके बारे में तो शायद कोई सोच भी नहीं रहा। लाॅक डाउन ने उनका भी धंधा ठप कर दिया है।
दरअसल घातक कोरोना वायरस के कारण ऐहतियातन पूरे देश में लागू लाॅक डाउन ने हमारे समाज, मानसिकता, तकाजों और प्रशासनिक प्रणाली की कई पर्ते उघाड़ कर रख दी हैं। इसने जाॅय और एंज्वाॅय के फर्क को भी बेनकाब कर दिया है। क्योंकि इस तरह का देशव्यापी और इतना लंबा बंद कभी न देखा, न सुना गया था। नजरबंदी की नजीरें थीं, लेकिन इस तरह पूरा मुल्क क्वारेंटाइन से गुजरने का कोई पूर्वानुभव नहीं था। इसने जहां देश को एक नई संस्कृति में जीना सिखाया है, वहीं आशंका, अंदेशों और कुंठा के नए मोर्चे भी खोल दिए हैं।
केरल से खबर आई है कि वहां कई प्रवासी मजदूरों ने राज्य के पयिप्पड और पेरवंबूर प्रदर्शन किया। कोरोना दहशत के बीच यह खबर इसलिए चौंकाने वाली थी, क्योंकि केरल उन राज्यों में गिना जाता है, जहां मजदूरों को बेहतर मजदूरी और सुविधाएं दी जाती हैं। उन्हें ‘गेस्ट वर्कर’ यानी मेहमान मजदूर कहा जाता है। बेहतर मजदूरी की आस में केरल ये मजदूर ज्यादातर यूपी, बिहार और आसाम से आते हैं। इनकी संख्या करीब 40 लाख बताई जाती है। लेकिन कोरोना ने इनकी भी मुसीबतें बढ़ा दी है। राज्य की विजयन सरकार ने प्रदेश के 87 लाख गरीब परिवारों को मुफ्त राशन देने का ऐलान किया है। लेकिन दो दिन पूर्व राज्य के पयिप्पड में इन मजदूरों ने उन्हें दिया जाने वाला राशन घटिया और अपर्याप्त होने को लेकर प्रदर्शन किया। मामला इतना बढ़ा कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा।
उसके बाद यह असंतोष पेरवंबूर में भी दिखा। यहां प्रवासी मजदूरों का कहना है कि जो खाना उन्हें दिया जा रहा है, वह उनकी खाद्य आदतों के अनुकूल नहीं है। इस प्रदर्शन के बाद राज्य के कृषि मंत्री वी.एस. सुनील कुमार ने भरोसा दिया कि सरकार इन उत्तर भारतीय मजदूरो के लिए आटा और चपाती बनाने की मशीन भी मुहैया कराएगी। बताया जाता है कि ताजा हालात में कई मजदूर अपने घरों को लौटना चाहते हैं, हालांकि यह समस्या अभी दिल्ली या राजस्थान जितनी गंभीर नहीं है।
इससे भी हैरान करने वाली घटना केरल में पांच शराबियों द्वारा राज्य में दारूबंदी के बाद खुदकुशी कर लेने की है। केरल उन राज्यों में है, जहां शराब की जमकर खपत होती है और राज्य सरकार की आय का यह महत्वपूर्ण साधन है। केरल की आबादी करीब 3 करोड़ है, लेकिन वर्ष 2018-19 में राज्य के निवासी 14 हजार 508 करोड़ रू. की शराब पी गए। इस हकीकत के बाद भी प्रदेश के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कोरोना वायरस के चलते राज्य में अस्थायी शराबबंदी लागू कर दी। इससे परेशान तिरूअंनतपुरम में एक परिवार के पांच लोगों ने खुदकुशी कर ली।
मेडिकल शब्दावली में इसे ‘एक्युट विड्राॅल सिंड्रोम’ कहते हैं। यानी अचानक किसी जरूरी चीज का बंद हो जाना। इसी तरह त्रिशूर जिले में एक व्यक्ति ने शराब न मिलने पर शेविंग लोशन पीकर ही जान गंवा दी। कोरोना या कोई और बीमारी उन तक पहुंचती, इसके पहले ही उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। इस ‘जालिम दुनिया’ को ठुकराने की इस अदा को आप क्या कहेंगे?
महज दारूबंदी के चलते लोगों की मौत से चिंतित राज्य सरकार ने फैसला किया कि वह उन लोगों तक शराब पहुंचाएगी, जिन्हें अब दारू ने ही पीना शुरू कर ‍िदया है। अर्थात वो लोग, जो शराब के बिना एक पल नहीं जी सकते। या यूं कहें कि दारू ही जिनके लिए ‘दवा’ बन गई है। शर्त रखी गई कि यह शराब डाॅक्टरों की सलाह पर ही मुहैया कराई जाएगी। लेकिन यह मामला भी इसलिए गड़बड़ा गया है, क्योंकि डाॅक्टरों ने ऐसा करने से साफ इंकार कर ‍िदया है। वे ‘दारू’ को ‘दवा’ के रूप में लिखने के लिए हर्गिज तैयार नहीं हैं। ऐसे में सरकार के सामने मुश्किल है कि वह क्या करे, कोरोना से मौतों को रोके या शराब के गम में जान जाने से रोके?
इसी राज्य में एक विचाराधीन कैदी ने तो सेनिटाइजर पीकर आत्महत्या कर ली। सेनिटाइजर में अल्कोहल तो होता ही है। वैसे, ऐसा ही एक मामला पड़ोसी राज्य कर्नाटक में भी हुआ है। वहां भी चार लोगों ने गमे शराब में खुदकुशी कर ली है।
अब बात पश्चिम बंगाल की। कोरोना के मरीज वहां भी बढ़ रहे हैं। शुरूआत में राज्य की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को कोरोना में भी ‘मोदी फैक्टर’ दिखा, लेकिन बाद में उन्हें मामले की गंभीरता समझ आई। वहां भी लाॅक डाउन है। लेकिन दिहाड़ी मजदूरों, छोटे कारोबारियों के अलावा राज्य की वेश्याएं भी गंभीर संकट में हैं।
कोलकाता का सोनागाछी देश का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया माना जाता है। यहां करीब 11 हजार सेक्स वर्कर्स जिस्म का धंधा करती हैं। यही उनकी आजीविका का साधन है। चौबीसो घंटे जागते रहते वाले इस इलाके में इन दिनो कोरोना सन्नाटा है। कोलकाता में इन यौनकर्मियों के संगठन दुर्बार महिला समन्वय समिति ( डीएमएसएस) का कहना है कि इस सोनागाछी में आने वाले ग्राहकों की संख्या रोजाना 40 हजार से घटकर 5 सौ से कम रह गई है। ( यह बात अलग है कि भारी सख्ती में भी इतने लोग फिर भी आ रहे हैं)
इससे सेक्स वर्कर्स के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। कई के बच्चे भी हैं। इनके अलावा इस पेशे पर पलने वाले हजारों दलालों, रिक्शावालों और दुकानदारों की रोजीटी भी ठप है। पूरे बंगाल में सेक्स वर्कर की संख्या करीब 5 लाख और पूरे देश में इनकी तादाद लगभग 30 लाख बताई जाती है। हालांकि कोलकाता में डीएमएसएस ने सेक्स वर्कर्स के बीच जागरूकता अभियान भी चला रखा है। लेकिन हालात जल्द न सुधरे तो इन सेक्स वर्कर्स के सामने भी दिहाड़ी मजदूरों की तरह भुखमरी की स्थिति पैदा होगी। इनमें से कई तो अपनी कमाई का एक हिस्सा गांव में परिजनो को भेजती हैं, जिससे उनका पेट भरता है।
दुर्बार समिति ने राज्य सरकार से इन सेक्स वर्कर्स के लिए मुफ्त राशन देने की मांग की है। फिलहाल सरकार ने इस मांग पर विचार का आश्वासन दिया है। एक यौनकर्मी का कहना है कि अगर जल्दी हालात नहीं सुधरे तो सोनागाछी भी इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगा। आखिर कोई कब तक भूखा रह सकता है? मुमकिन है कि बहुत से लोग कहें कि अगर कोरोना का भय इतना ‘कल्याणकारी’ और समाज की बुराइयों को यूं खत्म करने वाला है तो ऐसे ‘बुरे’ लोगों की चिंता करने की क्या जरूरत है? बेवड़े दारू के अभाव में मर रहे हैं तो मरें, वेश्याएं ग्राहकों के अभाव में भूख से बिलखती हो तो बिलखें। जितनी जल्दी हो, ऐसे लोगों से समाज को छुटकारा मिले, उतना अच्छाे।
ये जीएं या मरें, उनकी‍ किस्मत। वैसे भी कोरोना का संकट किसी भी दूसरे संकट से बड़ा है। वैश्विक है। वह छोटे- बड़े, अमीर -गरीब, औरत-मर्द, पापी-पुण्यात्मा, भ्रष्ट-ईमानदार, ग्राहक-गणिका, पुलिस-दलाल, मालिक-मजदूर, डाॅक्टर- मरीज किसी में भेदभाव नहीं करता। पहले उसे रोको। उसे रोकने के चक्कर में दूसरों की सांसें भी रूक जाए तो कुछ गैर नहीं है। लेकिन हमे जीने दो। निष्ठुर सोच से उपजा ‘शुद्धतावाद’ यह नहीं देखता कि कलारियां और वेश्यालय भी उसी ने तैयार किए हैं। उसी ने वो दड़बे भी बनाए हैं, जहां इंसान‍ किसी तरह कीड़े-मकोड़ों की तरह जी रहे हैं। इनका क्या दोष है? ऐसी मजबूरियों में तो शायद कोरोना भी घुसना पसंद न करे। क्या नहीं?
अजय बोकिल/सुबह सबेरे से साभार

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