उड़ने-उड़ाने की राजनीति

msid-52661657,width-400,resizemode-4,udtaरिलीज के लिए तैयार फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ को लेकर एक बार फिर देश की फिल्म इंडस्ट्री और सेंसर बोर्ड आमने-सामने हैं। खबर है कि बोर्ड ने फिल्म में न केवल 89 कट सुझाए हैं, बल्कि वह चाहता है पंजाब से जुड़े सारे संदर्भ फिल्म से हटा दिए जाएं। इसकी वजह वजह सेंसर बोर्ड का यह डर है कि इस फिल्म से पंजाब की बदनामी हो सकती है। वैसे, इस डर की वजह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कुछ ही महीने बाद होने वाले पंजाब विधानसभा चुनाव हैं, जिसमें सत्तारूढ़ अकाली दल-बीजेपी गठबंधन को ड्रग्स के मुद्दे से भी जूझना है।

सेंसर बोर्ड के प्रमुख के रूप में पहलाज निहलानी पहले ही बहुत सारे तुगलकी फैसले कर चुके हैं, लेकिन इस मामले को उनकी मूर्खताओं की अगली कड़ी के रूप में नहीं लिया जा सकता। इस मुद्दे के साथ एक ऐसी राजनीतिक प्रस्थापना जुड़ी हुई है, जिसकी मार आजकल कला-संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई पड़ने लगी है। प्रस्थापना यह कि किसी क्षेत्र या जनसमूह से जुड़ी समस्या पर बात करना, उसे गंभीर चर्चा में लाना उसे बदनाम करने की साजिश में शामिल होना है।

किसी फिल्म ने पंजाब की ड्रग्स समस्या को उठाया तो वह पंजाब को बदनाम कर रही है। कहीं और हम देश की गरीबी या किसानों की आत्महत्या पर बात करें तो इसे देश को बदनाम करना माना जाएगा। जातिगत उत्पीड़न पर बात की जाए तो यह हिंदुत्व को बदनाम करने की कोशिश मानी जाएगी और ट्रिपल तलाक का मसला उठाया जाए तो इसे इस्लाम को बदनाम करने की साजिश करार दिया जाएगा। समकालीन विमर्श का अर्थ अगर सिर्फ हर चीज के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करना हो जाए, भूल कर भी किसी समस्या, किसी की तकलीफ के बारे में बात न की जाए, तो क्या इसे एक लोकतांत्रिक समाज का लक्षण माना जाएगा?

यह भी कि समस्याओं को ढकते चले जाने का यह रवैया क्या हमें कभी उन समस्याओं के हल की ओर ले जाएगा? ‘उड़ता पंजाब’ को प्रदर्शित करने की कोई न कोई राह फिल्म के प्रोड्यूसर्स निकाल लेंगे, लेकिन सेंसर बोर्ड के मौजूदा चीफ और उन्हें इस जगह पर बिठाकर देश पर अपने वैचारिक आग्रह थोपने वाले उनके आका भारतीय समाज का जो नुकसान कर रहे हैं, उसकी चिंता समाज को ही करनी होगी।

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