आलेख : खाने के बाद खप्पर फोड़ने का दौर

sahityaakademy_18_10_2015एक नव-स्वतंत्र राष्ट्र में कलाओं व साहित्य के मध्य सांस्थानिकता का क्या और कैसा संबंध हो, इसको लेकर नेहरू आरंभ से ही अत्यंत सशंकित और सहज संकोच से भरे रहे थे। उन्हें यह प्रस्ताव ही विचलित और उद्वेलित करता था कि कलाओं और साहित्य के संस्थानों के प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही के प्रवेश और वर्चस्व को कैसे अनुमति दी जा सकती है? तब सत्ता के परिसर में ‘कल्चरल-ब्यूरोक्रेसी” को इतनी स्वीकार्यता नहीं मिली थी। तब नेहरू ने स्वायत्त शासन वाली अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसी संस्थाओं को मूर्त रूप दिया और उसमें सत्ता या सरकार के किसी भी किस्म के हस्तक्षेप को दूर रखने के लिए तय किया कि इसमें इन्हीं अनुशासनों की सर्वोत्कृष्ट प्रतिभाएं प्रबंधन व संचालन का दायित्व निभाएं। हालांकि, उनका वित्त-पोषण सरकार का दायित्व था लेकिन इससे उसकी स्वतंत्रता बाधित नहीं थी।

लेकिन हममें अभी उतने वांछित जनतांत्रिक-संस्कार पैदा नहीं हुए थे कि ये संस्थाएं अपनी सुंदर आदर्शों वाली अवधारणा के अनुकूल लंबे समय तक काम कर सकें। अत: ज्यादा समय नहीं लगा और ये साहित्यकारों और कलाकारों के बजाय ‘कलहकारों” से भर गईं। लगे हाथ महत्वाकांक्षाओं का महाभारत शुरू हो गया। पुरस्कारों, पदों और लाभों के पारस्परिक वितरण में वानर-विधि उसका अघोषित संविधान बन गई। कहने की जरूरत नहीं कि बावजूद इसके ये अकादमियां कला, संगीत और साहित्य के सांस ले सकने के लिए थोड़ी-सी जगह तो बनाकर रख ही रही थीं। हालांकि ये काफी हद तक साहित्य, संगीत, कला के ‘ललित-लाक्षागृह” का रूप तो धर ही चुकी थीं। मसलन, ललित कला अकादमी में जनतंत्र ही नहीं था। वह कुछ कलाकारों का ‘जनपद” बन चुकी थी। जनपद हमारे यहां जागीरदारों के आधिपत्य में होते थे।

अब हम आज साहित्यिक बिरादरी द्वारा व्यक्त किए जा रहे ‘प्रतिरोध-प्रवाह” की इस घड़ी में देखें तो वहां टिक-टिक नहीं, धिक-धिक सुनाई दे रही है। एक बिरादराना थू-थू है। अभी तक साहित्य अकादमी से जो प्रतिष्ठा और पुरस्कारकांक्षी लेखक दुत्कारे जाते रहे थे, इस प्रतिरोध को देखकर उनकी प्रसन्न्ता छुपाए नहीं छुप रही है। वे इस विरोध से संस्था में प्रतिष्ठा-भंग का आनंद लेते बरामद हो रहे हैं। इसलिए पुरस्कार लौटाने के प्रतिरोध के उत्साह या क्रोध में, उस संस्था के ध्वंस की भी तुष्टि मिली हुई है। कहना न होगा कि जो पुरस्कारशुदा हैं, उनमें पुरस्कार लौटाने की ‘पात्रता” भी इसी लिए आ पाई कि वह उनके पास था। निश्चय ही, उसमें से कुछेक को वह उसी वितरण की अच्छी-बुरी वानर-विधि के चलते ही मिला था। अत: खाली ‘तेरा तुझ को अर्पण” की तर्ज पर लौटा देने से विरोध का वलय नहीं बनता। इस प्रसंग में मुझे बचपन में पटाखे छुड़ाने की एक युक्ति याद आती है। पटाखा खुले में छोड़ने के बजाय उसे किसी बर्तन के भीतर रखकर छुड़ाने में जो विस्फोट पैदा होता था, वह बहुत तीव्र होता था, उसमें कुछ कर डालने की उपलब्धि अनुभव होती थी।

इस सारे तह-ओ-बाल से, जो पहला प्रश्न उठता है, वह यह है कि हम देश और समाज में घटती घटनाओं के विरोध के अतिरेक में जाकर कहीं उस जगह को तो नष्ट नहीं कर डालेंगे, जो अभी तक कला या साहित्य के सहमतों और असहमतों के लिए पैर रखकर खड़ी रहने की जगह रही है। यहां मैं भारत-भवन को याद करना चाहता हूं। मैं उस संस्थान को भी हमेशा इसी संभावना के रूप में ही देखता-परखता आया और कभी किसी आग्रह-दुराग्रह को सामने रखकर उसकी अराजक ढंग से आलोचना नहीं की और ना ही करने वालों के पक्ष ही में रहा। जबकि उसकी भूमिका को लेकर, उस पर बहुत आक्रामक होकर हमारे वामपंथी मित्र लगातार आलोचना-भर्त्सना में लगे रहे। हालत यहां तक रही कि उस परिसर में दिखाई देने वाला लेखक संदिग्ध चरित्र का माना जाने लगा। प्रतिरोध के इस शिल्प के चलते न कहो, साहित्य अकादमी का परिसर भी ऐसा ही बन सकता है। भारत-भवन में हमेशा एक कोरस ही था। एक ही मुख्य-स्वर को दोहराने वाला समूह। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि वहां का वही मुख्य-स्वर अब दिल्ली में ‘प्रतिरोध” का स्वर बन गया है।

इसलिए, मैं सोचता हूं कि हम विरोध करें, लेकिन अपने विरोध से उस संस्था को ‘फूटी कोठी” न बना दें, जहां मुक्तिबोध के अंधेरे के जुलूस के प्रेत अपना डेरा बना लें। अगर ऐसा हुआ तो यह तो खाने के बाद खप्पर फोड़ने वाला महाब्राह्मणवाद कहलाएगा। वह जगह अंतत: तो, नेहरू के कलाओं के लिए जनतंत्र बनाने-बसाने के स्वप्न की जगह थी, क्योंकि उसके न रहने के बाद क्या हम किसी धनपशु के पिता के नाम से चलते पुरस्कारों व अनुदानों को माथे पर मुकुट की तरह धारण कर घूमते बरामद होना चाहते हैं? भविष्य का दृश्य कुछ-कुछ ऐसा ही बनता दिख रहा है। क्योंकि आज तक लेखकों की ऐसी कोई सर्वमान्य संस्था नहीं बनी, जो किसी लेखक के अवदान का यथेष्ट सम्मान करती हो।

यह ऐसे उपहास से भरा समय है कि मीडिया के लोग अटाला खरीदने वाले की तरह आगे आकर पूछ रहे हैं कि क्यों, तुम्हारे वापस लौटा देने के लिए कुछ है कि बस ठन-ठन गोपाल हो? कहीं ‘भारत-रत्न” प्राप्त लोगों व उनके वंशजों को जल्द ही अपराधी घोषित न कर दिया जाए, क्योंकि वह सम्मान भी तो सरकारी ही माना जाता है।

 
 
 
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