आलेख : कितनी उम्मीदें और कितनी हकीकत – महेंद्र वेद

united-nations-security-council_24_09_2015प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा में शिरकत करने अमेरिका पहुंच गए हैं। विश्व में भारत के प्रभुत्व का एजेंडा मोदी की प्राथमिकताओं में रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हासिल करना भी इसमें शामिल है।

कुछ दिनों पहले इस आशय की खबरें सुर्खियों में थीं कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के अपने लक्ष्य के बहुत निकट पहुंच गया है। लेकिन अगर वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से देखें तो सच्चाई यही है कि हम अभी भी दुनिया के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली देशों के इस क्लब का हिस्सा बनने से बहुत दूर हैं।

इसके कई कारण हैं, जिन पर बारीकी से विचार करने की जरूरत है। हम एक बहुत बड़ी दुनिया का हिस्सा हैं और इसमें चीजें केवल इसीलिए नहीं होतीं, क्योंकि हम ऐसा चाहते हैं। हर चीज के अपने तर्क और मानदंड होते हैं।

बहरहाल, इसका यह मतलब नहीं कि हमें इसके लिए कोशिशें नहीं करनी चाहिए। मोदी इसके लिए निरंतर प्रयासरत हैं और पूरी संभावना है कि अपने अमेरिकी दौरे के दौरान भी वे इस एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे। भारत जितने आकार, जनसंख्या व भू-राजनीतिक महत्व वाले देश को इसलिए भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हासिल करने का अधिकार है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद से ही भारत ने इस संस्था की बेहतरी के लिए अपनी ओर से बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

पिछले अनेक सालों में जब भी किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष ने विदेश यात्रा की और कोई महत्वपूर्ण विदेशी मेहमान भारत आया, हमने अपनी इस महत्वाकांक्षा को जताने का कोई अवसर नहीं गंवाया है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के लिए तत्पर है। लेकिन देखा जाए तो कई दूसरे देश भी ऐसा ही चाहते हैं। और सबसे अहम बात यह है कि जो देश परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में वीटो लेकर बैठे हैं, वे भी किसी को अपने क्लब में प्रवेश नहीं करने देने के लिए कमर कसे हुए हैं।

इसलिए सबसे पहले तो हमें इस भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए कि हमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता बस मिलने ही वाली है। कोई भी अपने वर्चस्व में सेंध लगाई जाना पसंद नहीं करता। कोई भी नहीं चाहता कि उसे अपने एकाधिकार को किसी से साझा करना पड़े। जो पांच देश सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में बैठे हुए हैं, उनकी भी यही स्थिति है। वे किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नहीं चाहते हैं और वे सालों से यही कोशिश कर रहे हैं कि किसी को भीतर प्रवेश नहीं करने दिया जाए। हां, सुरक्षा परिषद के ढांचे में सुधार पर बातचीत के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में जो प्रस्ताव पारित हुआ है, उसका अपना महत्व है। लेकिन इसे महज एक कूटनीतिक कदम से ज्यादा नहीं समझा जाना चाहिए।

दूसरी तरफ, तेजी से बदलती विश्व-स्थिति में महाशक्तियों का रुख और रवैया भी बदलता जा रहा है। मिसाल के तौर पर अमेरिका भारत की दावेदारी का पुरजोर समर्थन करता आ रहा है, लेकिन पिछले कुछ समय से बराक ओबामा ने इस विषय पर ढुलमुल रवैया अपना लिया है। दरअसल, बात केवल भारत की ही नहीं है। वे तमाम देश जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हासिल करना चाहते हैं, उन्हें आज ऐसा महसूस कराया जा रहा है, मानो उन्होंने किसी नौकरी के लिए आवेदन किया हो।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग का ही उदाहरण लें। पिछले साल उन्होंने संयुक्त राष्ट्र का आधार बढ़ाने की बात कही थी, जिसकी कई लोगों द्वारा इस तरह व्याख्या की गई थी कि वे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि वे भारत को स्थायी सदस्य के रूप में प्रवेश नहीं करने देने के लिए पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। यही स्थिति रूस के व्लादीमीर पुतिन की है, जो कभी भारत की दावेदारी के समर्थक रहे थे, लेकिन आज उनके सुर बदले-बदले-से हैं।

सुरक्षा परिषद के ढांचे में सुधार पर बातचीत के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित प्रस्ताव को अस्पष्ट बताकर उसका विरोध करने वालों में रूस और चीन के साथ ही पाकिस्तान भी शामिल था। खैर, पाकिस्तान का विरोध समझा जा सकता है, जिसका अस्तित्व ही भारत के प्रति घृणा पर आधारित है। उसने कभी भी भारत के प्रति अपना विरोध जताने के लिए कूटनीतिक भाषा का सहारा नहीं लिया। भारत के लिए चिंतनीय तो यही है कि संयुक्त राष्ट्र में उसकी दावेदारी के खिलाफ पाकिस्तान का वोट मायने रखता है।

चीन का विरोध भी जाहिर है। वह भारत को दुनिया और एशिया में अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है। पश्चिमी देशों के प्रति भारत का झुकाव जगजाहिर है। चीन को लगता है, और उचित ही लगता है कि अमेरिका भारत को एशिया में उसकी एक धुरी के रूप में स्थापित करना चाहता है और ऐसा वह चीन के बढ़ते वर्चस्व पर अंकुश लगाने के लिए करना चाहता है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि चीन ने पूरी कोशिश की थी कि भारत के शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव न चुने जा सकें। इसके लिए उसने दक्षिण कोरिया के बान की मून तक को अपना समर्थन दे दिया, जबकि दक्षिण कोरिया एक लंबे समय से चीन का राजनीतिक और आर्थिक प्रतिद्वंद्वी बना हुआ है।

तिस पर पाकिस्तान से चीन की नजदीकियां हैं। पाकिस्तान चीन का सदाबहार दोस्त और उसका क्षेत्रीय-सामरिक सहयोगी रहा है। मोदी और जिनफिंग चाहे जितना एक-दूसरे को ‘भाई-भाई” कहकर पुकारें, इससे यथार्थ के धरातल पर कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात से भी नहीं पड़ता कि संयुक्त राष्ट्र में भारत ही चीन का पहला समर्थक था और सुरक्षा परिषद में उसकी स्थायी सदस्यता का भी भारत ने ही समर्थन किया था। कूटनीति की दुनिया में इस तरह की चीजों को याद नहीं रखा जाता। वहां पर कृतज्ञता जैसी कोई चीज नहीं होती। केवल अपने हित ही वहां मायने रखते हैं।

नई दिल्ली इस बात को लेकर भी ज्यादा चिंतित नजर नहीं आती कि भारत का परंपरागत दोस्त और साझेदार रूस क्यों उससे दूर होता जा रहा है। क्यों वह पाकिस्तान को हथियार बेचने लगा है, जिनमें से कुछ तो वही हैं, जो उसने भारत को भी बेचे हैं। रूस द्वारा सखालिन में भारत को तेल के स्रोतों की खोज करने देना अब पुरानी कहानी हो गई। हो सकता है अब वह ऐसी कोई सौगात पाकिस्तान को दे। इसके पीछे कारण वही है, जो चीन की भी चिंता का सबब है : पश्चिमी देशों के प्रति भारत की नजदीकी। दोटूक कहें तो एशिया में भारत के दोनों भाई चीन और रूस अब उससे बिछुड़ चुके हैं और भारत-रूस-चीन धुरी एक पुरानी कहानी हो गई है। लेकिन भारत को तब तक एक वैश्विक महाशक्ति नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसके पड़ोसी उसका साथ न दें। पाकिस्तान के होते ऐसा होने से रहा। लिहाजा भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दिल्ली अभी दूर ही है।

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