आलेख : आखिर किस भारत का आईना है दादरी?

dadri12_09_10_2015यह हमारे समय का एक कड़वा सच है कि देश में जब भी कोई महत्वपूर्ण चुनाव होते हैं, फिर चाहे वे लोकसभा चुनाव हों या फिर किसी बड़े राज्य के विधानसभा चुनाव, देश का माहौल विद्वेषपूर्ण हो जाता है और सांप्रदायिक धुरियां निर्मित होने लगती हैं। जो समाज शांत, सौहार्दपूर्ण और सहिष्णु था, वह सहसा उद्वेलित और सांप्रदायिक आधार पर विभाजित नजर आने लगता है। समाज में निर्मित होने वाला यह वैमनस्य बहुजन हिताय भले न हो, कइयों का हित जरूर इससे सधता है, कइयों के न्यस्त स्वार्थ इससे जुड़े होते हैं। जिस देश में जाति और संप्रदाय के आधार पर समाज अनेक स्तरों पर विभाजित हो, वहां पर चुनावों के दौरान ऐसी प्रवृत्तियों का उभरना अवश्यंभावी ही है।

बार-बार यही साबित होता है कि भारत एक नहीं, बल्कि दो हैं। एक तरफ तो आधुनिक और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं वाला भारत है, जो दुनिया से टक्कर ले रहा है, उससे श्रेष्ठता की होड़ कर रहा है। और दूसरी तरफ एक दकियानूसी और रूढ़िवादी भारत भी है, जो आज भी जाति, वर्ग, संप्रदाय के मकड़जाल में उलझा हुआ है। और ये दोनों भारत एक साथ न केवल सह-उपस्थित हैं, बल्कि एक-दूसरे के प्रति असहज भी हैं।

दादरी में हुई घटना इस दूसरे भारत ही का एक आईना है। दादरी पर चल रही राजनीति को भी इसी की एक कड़ी माना जाना चाहिए। राजनेताओं ने इस घटना पर गैरजिम्मेदाराना बयान देने में कोई कोताही नहीं बरती और मीडिया भी गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग करने से बाज नहीं आया। देश का सामुदायिक ढांचा हमेशा से ही नाजुक हालत में रहा है। ऐसे में यह लोकतंत्र के स्तंभों की जिम्मेदारी है कि जख्मों पर नमक छिड़कने के बजाय उन पर मरहम लगाने की कोशिश करें।

दादरी की घटना के बाद देश में निर्मित हुए हालात के मद्देनजर ही अंतत: राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को हस्तक्षेप करने को बाध्य होना पड़ा। उन्हें यह कहना पड़ा कि बहुलता और सहिष्णुता वे बुनियादी मूल्य हैं, जो भारत को सदियों से एक सूत्र में पिरोए रखने में कामयाब हुए हैं। हम किसी भी कीमत पर इनसे समझौता नहीं कर सकते। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राष्ट्रपति द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं का अनुमोदन किया। बिहार के नवादा में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने हिंदुओं और मुस्लिमों दोनों से ही साफ शब्दों में यह अपील की कि वे एक-दूसरे से लड़ने के बजाय एकजुट होकर गरीबी का मुकाबला करें।

देश के दो शीर्षस्थ व्यक्तियों द्वारा एक निर्णायक मौके पर इस आशय की बात कहना महत्वपूर्ण था और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद देश की फिजा सुधरेगी। अलबत्ता प्रधानमंत्री को इस बारे में अपना रुख स्पष्ट करने में जो देरी हुई, उस दौरान विपक्षी दलों को उन पर हमला बोलने का पर्याप्त मौका मिल गया था, लेकिन अब उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्हें अपना जवाब मिल गया होगा। इधर चुनाव आयोग ने भी बिहार विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान कही जा रही बातों का संज्ञान लिया है और आशा है कि इसके बाद भी अब राजनेतागण अधिक संयमित भाषा का परिचय देंगे।

बहरहाल, यह सवाल अपनी जगह पर कायम है कि आखिर क्या कारण है कि चुनावी मौसम में देश में कटुता और वैमनस्य का माहौल निर्मित हो जाता है और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की स्थिति नजर आने लगती है? इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिम वोट बैंक के दोहन के लिए राजनीतिक वर्ग द्वारा अपनाई गई नीतियां अब देश के राजनीतिक विमर्श में दोफाड़ की स्थिति निर्मित करने की हद तक पहुंच चुकी हैं। कांग्रेस पार्टी परंपरागत रूप से तुष्टीकरण की नीतियों का अनुपालन करने और सेकुलरिज्म की मनचाही व्याख्या करने की दोषी रही है। कांग्रेस से प्रेरणा लेकर बाद में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने भी इसी ब्रांड की राजनीति की है।

इसकी प्रतिक्रिया में देश में उभरे बहुसंख्यकवादी स्वरों का भाजपा ने प्रतिनिधित्व किया है और अनेक राज्यों सहित केंद्र की सत्ता में काबिज होने में सफलता पाई है। देश में जब भी कोई महत्वपूर्ण चुनाव होता है, तो तमाम मुद्दे एक तरफ रह जाते हैं और जाति और संप्रदाय की राजनीति से जुड़े कर्कश स्वर अधिक मुखर हो जाते हैं। पिछले डेढ़ सालों में नरेंद्र मोदी ने जरूर चुनावी विमर्श का रुख सांप्रदायिकता के बजाय विकास की ओर मोड़ने की कोशिश की है। लोकसभा चुनावों में उनकी यह कोशिश कामयाब भी साबित हुई, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि बिहार में जाति और संप्रदाय के विभाजन बहुत गहरे और भीतर तक धंसे हुए हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि वर्ष 2013 में बिहार में भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद से सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है। दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे पर सांप्रदायिकता को बढ़ाने का आरोप लगा रही हैं।

राजनीतिक विमर्शकार दादरी की घटना को भी बिहार से जोड़कर देख रहे हैं। गोमांस खाने-न खाने को लेकर चल रही तीखी बहस बिहार में ध्रुवीकरण के नए स्तरों को रच रही है। इसके चुनावी फायदे अपनी जगह पर हैं, लेकिन यह स्थिति दुनिया में भारत की छवि के लिए बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। एक ऐसे समय में, जब चीन की अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने के बाद पूरी दुनिया की नजरें भारत पर टिकी हुई हैं, हमारे हुक्मरानों को देश की एक बेहतर और उजली छवि के प्रति सचेत रहना चाहिए। यह सच है कि देश में आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में इजाफा हुआ है और प्रधानमंत्री भी पूरी दुनिया में घूमकर भारत को एक आकर्षक निवेश-स्थल के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। ऐसे में अगर भारत अपने सांप्रदायिक और जातिगत टकरावों के चलते दुनिया में अपनी निर्धारित हैसियत को हासिल नहीं कर पाता है, तो इससे दु:खद और कुछ नहीं हो सकता।

आज दुनिया में भारत के दुश्मनों की कमी नहीं है। भारत का मार्ग अवरुद्ध करने को अनेक देश तत्पर हैं। ऐसे में भारत में निर्मित होने वाली सांप्रदायिक तनाव की स्थितियां उनका सबसे बड़ा हथियार साबित होती हैं।

हमें व हमारी सरकार को उन्हें झुठलाना होगा। यह साबित करना होगा कि भारत अब इन बातों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ चुका है। मीडिया के एक वर्ग को भी आत्ममंथन करना होगा। उसे पत्रकारिता के मानकों और मर्यादाओं पर विचार करते हुए यह सोचना होगा कि समाज में समरसता स्थापित करना उसकी जिम्मेदारी है या फिर अपनी गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग से समाज में वैमनस्य को बढ़ावा देना। जिम्मेदारी तो हिंदुओं और मुस्लिमों के नेताओं और धर्मगुरुओं की भी बनती है कि वे देश की बिगड़ती हुई फिजा को और बिगाड़ने के बजाय उसे संवारने की कोशिश करे। कि वे अमन-चैन कायम करने के लिए मोहल्ला स्तर पर बैठकों का आयोजन करें। सुखद है कि दादरी में उस घटना के बाद अमन-चैन के ऐसे प्रयास देखे गए हैं।

 

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