“आलस्य आत्मघाती तो है ही, समाज व राष्ट्र के लिए बेहद हानिकारक है”

सुधांशु जी महाराज.  श्रीमदभगवदगीता ने कर्मयोग के बारे में जितना व्याख्यायित किया है, उतना और किसी ग्रंथ ने नहीं। कर्म की गम्भीरतम व्याख्या, वह भी भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी से। गीता का तीसरा अध्याय तो कर्मयोग की ढेरों उच्चस्तरीय व्याख्याओं से भरा हुआ है। गीतानायक ने लोक के वासियों को कर्म करने के लिए सदा प्रेरित किया। उन्होंने चाहा कि कर्मो में असंग रहे, कर्मकर्ता निसंग रहे, वह निष्काम भाव से कर्म करे। इसकी प्रेरणा श्रीकृष्ण ने महाबली अर्जुन के माध्यम से दुनिया को दी। उन्होंने कहा कि हमारा कर्म यज्ञ बन जाये, हवन बन जाये, अग्निहोत्र बन जाय।

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प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं- परोपकारी कर्म हो हमारा। अपना कर्म सेवा बन जाये, भक्ति बन जाय। हमारे कर्म से स्वार्थ निकल जाये, भगवान ने इसके लिए विविध-विधि प्रेरणायें दीं। उन्होंने यह भी कहा कि कर्म करने से संग पैदा होता है, आसक्ति पैदा होती है; फिर भी कर्म को छोड़ना नहीं है, कर्म करते ही जाना है। संसार में जानना श्रेष्ठ है लेकिन जानने से ज़्यादा उसे व्यवहार में लाना उत्तम है। व्यवहार पुरूषार्थ से लगातार जुड़ा रहे, ये भी बड़ा आवश्यक है। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक जीव प्राणीमात्र सभी कर्म में रत हैं, तो हमें भी कहीं और कभी खाली नहीं बैठना चाहिए।

मित्रों! आलस बहुत ही ख़राब चीज़ है, आत्मघाती है, उससे स्वयं को तो ढेरों नुक़सान पहुँचते ही हैं, समाज और देश की भी हानि होती है। इसीलिए भगवान कहते हैं कि कभी आलसी मत बनना। अंतिम समय तक पुरुषार्थ करते हुये जीवन जीना। भगवान ने कहा कि यद्यपि अब मेरे लिए कुछ करना शेष नहीं है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ, क्योंकि बड़े लोग जो कुछ करते हैं , अनुकरण करने वाले लोग उसी से प्रेरणा लेते हैं, उसी तरह से अपने जीवन को बनाने लगते हैं। ईश्वर चाहता है कि यह संसार सदैव कर्म से जुड़ा रहे।

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