आर्ट और कल्चर के शौकीन हैं तो जरूर घूमें तवांग में दीरांग वैली

हम में से ऐसे कई लोग हैं जो घूमने के लिए किसी ऑफबीट जगह पर जाना चाहते हैं। उन्हें घूमने-फिरने से ज्यादा किसी जगह के कल्चर को जानने का शौक होता है। अगर आप भी उन लोगों में से एक हैं, तो हम आपको बताने जा रहे हैं ऐसी जगह के बारे में जहां जाकर आपको न सिर्फ भीड़भाड़ से मुक्ति मिलेगी बल्कि आपको उस जगह के बारे में जानकारी भी मिलेगी।  आर्ट और कल्चर के शौकीन हैं तो जरूर घूमें तवांग में दीरांग वैली

(अरूणाचल प्रदेश)  तवांग  की खूबसूरत वैली दीरांग

बोमडिला से तवांग जाने के रास्ते में करीब 43 किलोमीटर दूर है एक ख़ूबसूरत वैली-दीरांग। कामेंग नदी के किनारे पहाड़ों की तलहटी पर बसा यह कस्बा ख़ूबसूरत तो है ही, इसने अपने साथ समेटी है सालों पुरानी स्थापत्य कला की विरासत भी। यहां दीरांग डजोंग नाम का एक इलाका तकरीबन 150 साल पुराना है। डजोंग के आस-पास बने पत्थर के कुछ घर करीब 500 साल पुराने बताए जाते हैं। यहां से करीब 1 किलोमीटर आगे गरम पानी का एक सोता भी है जिसे स्थानीय लोग बहुत पवित्र मानते हैं। इस सोते में आप चाहें तो डुबकी भी लगा सकते हैं। दीरांग के पास देश का अनूठा राष्ट्रीय याक अनुसंधान केंद्र भी है।आर्ट और कल्चर के शौकीन हैं तो जरूर घूमें तवांग में दीरांग वैली

1989 में शुरू हुए इस रिसर्च सेंटर में याक से जुड़े विभिन्न पहलुओं, मसलन-उत्पादन, ब्रीडिंग, नस्लों में सुधार आदि पर अनुसंधान किया जाता है। यहां से 31 किलोमीटर दूर एक याक फार्म भी बनाया गया है। रिसर्च सेंटर देखने के लिए आपको पहले से अनुमति लेनी जरूरी है।

सेला: एक ख़ूबसूरत दर्रा समुद्र तल से करीब 4170 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद सेला चीन की सीमा से लगे तवांग को बोमडिला और देश के बाक़ी हिस्सों से जोड़ता है। सेला लगभग सालभर बर्फ से घिरा रहता है और चारों ओर बर्फ के बीच सेला झील की ख़ूबसूरती अपने आकर्षण पाश में बांध लेती है। यह झील तिब्बत के बौद्ध धर्म में पवित्र मानी जाने वाली 101 झीलों में से एक है। उजली बर्फ से घिरी ये गहरी नीली झील इतनी ख़ूबसूरत लगती है कि सैलानियों ने इसे ‘पैराडाइस लेक’ नाम दे दिया है। इस इलाके में साल-भर बर्फ़ पड़ती है इसलिए बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन यहां हमेशा चौकसी बनाए रखता है ताकि सड़क मार्ग में रुकावट न आने पाए। सर्दियों में यहां का तापमान -10 तक चला जाता है और सेला झील जम जाती है। सेला के नामकरण के पीछे एक कहानी भी छिपी है। भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन की सीमा तवांग से आगे बढ़ चुकी थी। सेला के पास तैनात जसवंत सिंह रावत नाम का एक वीर सिपाही सेना से अकेला लोहा ले रहा था। उसकी वीरता को देखकर एक आदिवासी महिला सेला बहुत प्रभावित हुई और उसके लिए खाना-पानी लेकर आई। अकेले दुश्मन से लोहा लेता हुआ यह सिपाही आखिरकार वीरगति को प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि उसके शव को जब सेला ने देखा तो दुखी होकर उसने आत्महत्या कर ली। जसवंत सिंह की वीरता और शहादत को याद करने के लिए यहां एक स्मारक भी बनाया गया है।

ईगलनेस्ट वाइल्डलाइफ सेंचुरी 

ईगलनेस्ट वाइल्डलाइफ सेंचुरी बोमडिला से कऱीब 50 किलोमीटर की दूर घने जंगल के बीच है ईगलनेस्ट वाइल्डलाइफ सेंचुरी। 2018 वर्ग किलोमीटर में फैली यह सेंचुरी कई दुर्लभ पक्षियों का घर है। इस सेंचुरी में उभयचर प्राणियों की 34, सांपों की 24, पक्षियों की 454 और तितलियों की 165 प्रजातियां पाई जाती हैं। हाथी, लंगूर, बंगाल टाइगर, रेड पांडा, भालू जैसे वन्य जीव भी इस सेंचुरी में देखे जा सकते हैं। भारतीय सेना की रेड ईगल डिवीजऩ सन 1950 में यहां हुआ करती थी जिसके नाम पर इस सेंचुरी का नाम ईगलनेस्ट पड़ा। जैव-विविधता के लिहाज़ से यह देश के सबसे ज्यादा संरक्षित अभयारण्यों में शुमार है। बर्ड वॉचिंग और फोटोग्राफी के शौकीन लोगों के लिए यह सैंक्चुअरी किसी खजाने से कम नहीं है। इनरलाइन परमिट है जरूरी अरुणांचल प्रदेश की सीमा में प्रवेश करने के लिए इनरलाइन परमिट की जरूरत पड़ती है। यह एक तरह का सरकारी अनुज्ञा पत्र है जिसके बिना आपको इस प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में जाने की अनुमति नहीं है। इनरलाइन परमिट दिल्ली, गुवाहाटी, शिलांग, तेजपुर में बने अरुणाचल भवन से बनवाया जा सकता है। परमिट बनवाने के लिए ऑनलाइन सुविधा भी मौजूद है। इसके लिए वोटर आइडी कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस जैसे किसी परिचय पत्र की जरूरत होती है।

रास्ते में बने चेकप्वाइंट्स पर इस परमिट की जांच के बाद ही आप आगे जा सकते हैं। अगर आप बोमडिला जाना चाहते हैं तो पहले ही परमिट बनाने की कार्रवाई पूरी कर लें, तो बेहतर रहेगा। कैसे और कब पहुंचें? बोमडिला जाने के लिए गुवाहाटी तक प्लेन या ट्रेन से पहुंचा जा सकता है। दिल्ली, मुंबई या कोलकाता जैसे बड़े शहरों से गुवाहाटी के लिए फ्लाइट और ट्रेन दोनों उपलब्ध हैं। गुवाहाटी से टैक्सी हायर की जा सकती है। वैसे यहां से सीधे बोमडिला के लिए बस भी चलती है। बोमडिला में अच्छी-खासी ठंड पड़ती है। सर्दियों में तापमान 5 डिग्री से नीचे भी चला जाता है। इसलिए सर्दियों का वक्त वहां जाने के लिए सही नहीं है। गर्मी का मौसम यानी अप्रैल से अक्टूबर का समय यहां आने के लिए एकदम मुफीद है।

खानपान और तिब्बती संस्कृति 

खानपान पर हावी तिब्बती संस्कृति बोमडिला तिब्बत की संस्कृति से प्रभावित है, इसलिए वहां का खान-पान भी उनके खान-पान से मेल खाता है। बोमडिला में रोड के किनारे ढाबों पर आपको गरमा-गरम थुक्पा का स्वाद जरूर लेना चाहिए। थुक्पा एक तिब्बती डिश है जो सूप में नूडल्स डालकर बनाई जाती है। इसके अलावा, यहां के मोमोज़ भी आपको ज़रूर ट्राई करने चाहिए। पर थुक्पा और मोमोज़ जैसी लोकप्रिय खाने की चीज़ों के अलावा स्थानीय मोम्पा समुदाय का अपना पारंपरिक खान-पान भी है, जिसे मौका मिलने पर आपको ज़रूर आज़माना चाहिए। कामेंग जिले में बसे ये मोम्पा प्रकृति के काफी करीब रहते हैं। पर मांसाहारी होने के कारण ये जंगली और पालतु जीव-जंतुओं को खानपान में शामिल करते हैं। मछली, याक और चिकन इनके खानपान में प्रमुखता से शामिल हैं। लोकप्रिय खानपान में छुरपी, छुर सिंगपा आदि हैं जो यहां खासे पसंद किए जाते हैं। छुरपी तो लोकल स्टेटस का प्रतीक है यानी जिनके घरों में यह बनता है वे समृद्घ माने जाते हैं। छुरपी तीन प्रकार के होते हैं-छुर सिंगबा, छुर चिरपन और छुरुप्पु। छुर सिंगबा पनीर की तरह का होता है, जो याक के दूध से बनाया जाता है। शॉपिंग है एकदम खास बोमडिला तिब्बती कारपेट के लिए जाना जाता है।

आर्ट और कल्चर लवर्स के लिए बहुत कुछ है खास 

इसके अलावा, पारंपरिक मास्क, पेंटिंग्स और थांका भी यहां से खऱीदे जा सकते हैं। इन पर किया जाने वाला बारीक काम और अलग-अलग थीम वाले रंग-बिरंगे डिज़ाइन इनकी ख़ासियत हैं। बोमडिला के क्राफ्ट सेंटर और एथनोग्राफिक म्यूजियम से भी ये चीजें खरीदी का सकती हैं। खासकर ड्रैगन के चित्रों वाले कारपेट और पेंटिंग यहां पर्यटकों के बीच काफ़ी मशहूर हैं। ऊनी मफ़लर और टोपियां भी खरीदने के लिए अच्छा विकल्प हो सकती हैं। लोग अक्सर तोहफे और यादगारी के लिए बोमडिला से ये सामान लेना नहीं भूलते।

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