आपको बताएं कुंती पुत्र अर्जुन के द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति, और अर्जुनकृत दुर्गास्तवन के पाठ की महिमा..

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ हो रहा है। इस बार नवरात्रि 22 मार्च से शुरू होकर 30 मार्च तक पूरे होंगे। नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती और स्तुति का बड़ा महत्व माना गया है, युगों युगों से दुर्गा का गुणगान होता आरहा है यहाँ तक कि इतिहास के सबसे भयावह नरसंहार महाभारत  में भी देवी दुर्गा का अस्तित्व रहा है। आईये, आपको बताएं कुंती पुत्र अर्जुन के द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति, वरप्राप्ति और अर्जुनकृत दुर्गास्तवन के पाठ की महिमा-

दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिए उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित के लिये इस प्रकार कहा।

महाबाहो! तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो। पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गा देवी की स्तुति करो।

परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतरकर देवी  की स्तुति करने लगे।

इस प्रकार करी अर्जुन ने देवी की स्तुति –

मन्दराचल पर निवास करने वाली सिद्धों की सेनानेत्री आयें। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। तुम्हीं कुमारी, काली, कापाली, कपिला, कृष्णपिंग्ला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो, तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तों को संकट से तारने के कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।

महाभागे। तुम्हीं (सौम्य और सुन्दर रूप वाली) पूजनीया कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जया के नाम से विख्यात हो। मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है। नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। तुम भयंकर त्रिशूल, खड्ग और खेटक आदि आयुधों को धारण करती हो। नन्दगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्ण की तुम छोटी बहिन हो, परंतु गुण और प्रभाव में सर्वश्रेष्ठ हो।

महिषासुर का रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। तुम कुशिकगोत्र में अवतार लेने के कारण कौशिकी नाम से भी प्रसिद्ध हो। तुम पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओं को देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्रवाक के समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है। मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ। उमा, शाकम्भरी, श्वेता, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी और सुधूभ्राक्षी आदि नाम धारण करने वाली देवी! तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है।

तुम वेदों की श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है, वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्नि की शक्ति हो, जम्बू, कटक और चैत्यवृक्षों में तुम्हारा नित्य निवास है। तुम समस्त विद्याओं में ब्रह्माविद्या और देहधारियों की महानिद्रा हो। भगवति! तुम कार्तिकेय की माता हो, दुर्गम स्थानों में वास करने वाली दुर्गा हो। सावित्रि! स्वाहा, स्वाध, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता तथा वेदान्त- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं।

महादेवी। मैंने विशुद्ध हृदय से तुम्हारा स्तवन किया है। तुम्हारी कृपा से इस रणांगण में मेरी सदा ही जय हो। माँ! तुम घोर जंगल में, भयपूर्ण दुर्गम स्थानों में, भक्तों के घरों में तथा पाताल में भी नित्य निवास करती हो। युद्ध में दानवों को हराती हो। तुम्हीं जम्भनी, मोहिनी, माया, हीं, श्रीं, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो। तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य-चन्द्रमा को बढ़ाने वाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानों की विभूति हो। युद्ध भूमि में सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं। संजय कहते हैं- राजन्! अर्जुन के इस भक्तिभाव का अनुभव करके मनुष्यों पर वात्सल्य भाव रखने वाली माता दुर्गा अन्तरिक्ष में भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयीं और इस प्रकार बोलीं।

अर्जुन के द्वारा स्तुति के पश्चात् देवी दुर्गा के शब्द कुछ यूँ रहे-

पाण्डुनन्दन! तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। दुर्धर्ष वीर! तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा वहाँ से क्षण भर में अन्तर्धान हो गयीं।

वह वरदान पाकर कुन्तीकुमार अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए। फिर एक रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाये। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचों से कभी भय नहीं होता। शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतों वाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुल से भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करने से विवाद में विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धन से मुक्त हो जाता है।

वह दुर्गम संकट से अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राम में सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, इसका पाठ करने वाला पुरुष आरोग्य और बल से सम्पन्न हो सौ वर्षों की आयु तक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान भगवान व्यास जी के कृपा-प्रसाद से मैंने प्रत्यक्ष देखा है। राजन् आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं।

वे कालपाश से बद्ध होने के कारण इस समयोचित बात को बताने पर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुराम ने तुम्हारे पुत्र को बहुत रोका था, परंतु उसने उनकी बात नहीं माना। जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ही श्री और बुद्धि हो तथा जहाँ धर्म विद्यामान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है। इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्‍तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता में देवी दुर्गा की स्तुति करी गयी।

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