आजादी मिलने के 73 वर्ष के भीतर ही स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की बात करना कैसे राष्ट्रद्रोह हो गया ?

डॉ सुनीलम
आजादी मिलने के 73 वर्ष बाद लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, बन्धुता के मूल्यों की दुर्गति हम सब देख ही रहे हैं। देश भर में कोरोना के चलते स्वतंत्रता दिवस वैसा रंगीन और विविधतापूर्ण नहीं होगा जैसा कि अब तक होता आया है। हर 15 अगस्त पर मैं सोचता हूं कि यदि स्वतंत्रता दिवस सरकारी कार्यक्रम के तौर पर नहीं मनाया जाए तो यह स्वतंत्रता दिवस की देश में क्या तस्वीर होगी?
देश के हर गांव में स्वतंत्रता दिवस शासकीय स्कूल से जुड़कर मनाया जाता है। हर गांव में बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, शिक्षकों और नेताओं के भाषण होते हैं, मुख्यमंत्री का संदेश पढ़ा जाता है। यदि हम यह देखें कि स्वतःस्फूर्त कार्यक्रम कहां और कितने होते है, तो हम देखेगें कि 10% कार्यक्रम भी स्वतः स्फूर्त नही होते है जैसा कि दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस आदि त्योहार स्फूर्त तरीके से पूरे समाज द्वारा मनाए जाते हैं।
आजादी का आंदोलन लगभग 1857 से शुरू हुआ माना जाता है, जो तथ्यात्मक तौर पर गलत है। 412 साल पहले 24 अगस्त 1608 को पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत में कंपनियां लगाई थी। 1613 में विजयनगरम में फैक्टरियां लगाने की इजाजत मुगल बादशाह जहांगीर द्वारा दी गई थी। 263 वर्ष पहले रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला को हराया था, जिसे बैटल ऑफ पलासी के तौर पर इतिहास में दर्ज किया गया है। फिर शाह आलम 2 की बक्सर की हार 1764 में सर्वविदित है। 1857 की बगावत से सभी भली भांति परिचित हैं जिसका नेतृत्वकर्ता बहादुर शाह जफर को माना जाता है।
9 अगस्त 1942 को गांधी जी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ जो अंग्रेजो के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन था जिसे डॉ लोहिया द्वारा ‘जनक्रांति’ कहा गया। इस जनक्रांति दिवस पर कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं होते। इस कारण जिस आंदोलन में पचास हजार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद हुए हो तथा एक लाख से ज्यादा जेल गए हों उस 9 अगस्त की कहीं चर्चा नहीं होती।

137 करोड़ की आबादी वाले देश में आबादी 15 अगस्त 1947 को 33 करोड़ थी वहां अगस्त क्रांति दिवस और स्वतंत्रता दिवस स्वतः स्फूर्त तरीके से नहीं मनाया जाना कम से कम राष्ट्रवादियों के लिए तो चिंता का विषय होना चाहिए। ना तो किसी सरकार ने इस पर ध्यान दिया है ना ही किसी राजनीतिक दल ने। आजादी का आंदोलन 10-20 नेताओं का आंदोलन नहीं था।
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जिन्हें पूरा देश और दुनिया जानती और मानती है। स्वतंत्रता आंदोलन में लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने कुर्बानी दी। जिनकी पूछ परख करने वाला कोई नहीं है। देश के कई जिले में तो शहीद स्तंभ तक नहीं बने हैं। जहां बने भी है वहां कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम लिखे हैं लेकिन जिले के स्कूलों और कालेजों में उनके बारे में ना तो पढ़ाया जाता है ना ही उन शहीदों को लेकर कोई किताबें, फिल्में या दस्तावेज उपलब्ध है।

आजादी के बाद जो भी केंद्र और राज्य सरकारें रही उन्होंने कभी भी इस पर ध्यान नही दिया, यही कारण है कि देश के किसी भी जिले के स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी, वहां के शिक्षक, अधिकारी ,कर्मचारी तथा पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ता भी अपने जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते। स्वतंत्रता संगाम सेनानियों की पूरी पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी है। हर जिले में दो चार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही जीवित है उनमें से अधिकतर बहुत कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है। हर 15 अगस्त को उन्हें केवल सम्मानित करके शासन, सरकार इतिश्री कर लेती है। अच्छा है इस बार घर जाकर सम्मान किया जाएगा।
यदि सरकारों द्वारा हर जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवनियाँ ही प्रकाशित की होती तो वे नई पीढ़ी के सामने कम से कम जिले स्तर पर जो आंदोलन चले थे उनकी जानकारी पहुंचाई जा सकती थी। इन्हीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर फिल्में भी बनाई जा सकती थी लेकिन सरकारों ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को पेंशन देकर और नेताओं ने उनके साथ फोटो खिंचवा कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ली।
आजकल देश भर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के उत्तराधिकारी कार्य कर रहे हैं लेकिन उन्होंने भी स्वतंत्रता आंदोलन की धरोहर को संरक्षित करने में कोई विशेष योगदान नहीं किया है। जब उक्त मुद्दे उठाए जाते हैं तब बहुत सारे लोगों का कहना होता है कि 73 साल पहले आजादी मिल गई और उसके पहले जो कुछ भी हुआ हो उसका अब कोई महत्व नहीं रह गया है। मुझे लगता है कि यही सबसे अहम मुद्दा है। स्वतंत्रता आंदोलन का मूल्य आज कोई मायने रखते हैं या नहीं ?
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जो लोग आज सत्ता में है स्पष्ट तौर पर वे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों में विश्वास नहीं करते। उनकी भूमिका भी संदिग्ध रही है इसलिये उनका जोर नए सेनानी खड़ा करने पर है। सपा के मुलायम सिंह ने इसकी शुरुआत की थी। सपा लोकतंत्र को स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य मूल्य मानती थी इसलिये उन्होंने पेंशन की शुरुवात की। देखा देखी अन्य राज्य सरकारों ने मीसा बंदियों को लोकतंत्र सेनानी घोषित कर उन्हें कई राज्यों में पेंशन देना शुरू किया है।

सुना यह भी जा रहा है कि राम मंदिर आंदोलन के साथ जुड़े लोगों को पेंशन देने की योजना पर कई स्तरों पर विचार किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि 400 साल से राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन चल रहा था जिसके दौरान 76 युद्ध हुए। पार्टी के स्तर पर तो राम मंदिर में लगे आंदोलनकारियों को सम्मानित किया जाता ही रहा है। बाबरी मस्जिद को धराशाही करने वालों को महिमामंडित करना लगभग वैसा ही है जैसे गांधी के हत्यारों को महिमामंडित करना। बाबरी मस्जिद को गिराया जाना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वधर्म सांप्रदायिक सद्भाव तथा संविधान के धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की हत्या के समान है। भारत का कानून भी किसी भी धर्म के पूजा स्थल को धराशाही करने की इजाजत नहीं देता।
परन्तु बात किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में जिस कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया वह भी स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों के साथ खड़ी दिखाई देने की बजाय समझौता करती दिखलाई पड़ती है। कांग्रेस की हालत इतनी पतली हो गई है कि वह गांधी जी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के खिलाफ भी देश में माहौल खड़ा नहीं कर पा रही है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल नेहरू जिनके परिवार के नाम से कांग्रेस पार्टी जानी पहचानी जाती है, कांग्रेस उनके स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान तथा मजबूत स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान को भी 137 करोड़ देशवासियों के सामने रख पाने में असक्षम साबित हो रही है।
स्वतंत्रता आंदोलन के दो नायक, 23 वर्ष में शहीद हुए शहीद भगत सिंह और आजाद हिंद फौज बनाकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले सुभाष चंद्र बोस दो ऐसी शख्सियत है जिनकी चमक आज भी युवाओं के बीच बनी हुई है। लेकिन उनके मूल्यों की कद्र समाज करता दिखलाई नहीं देता। सरकार तो दूरी बनाकर रखती है दोनो के विचारों की पार्टियां भी अपने वजूद के लिए संघर्ष करती दिखलाई पड़ती हैं।

आचार्य नरेंद्र देव, डॉ लोहिया, जेपी, युसूफ मेहर अली, कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसे समाजवादी नेताओं की जानकारी उत्तर भारत तक सीमित होकर रह गई है। जिन्होंने अंग्रेजों की रॉयल सीक्रेट सर्विस के लिए काम किया वह आज देश में राष्ट्रभक्ति के सर्टिफिकेट बांट रहे हैं तथा स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को पुनर्स्थापित करने तथा स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों के सपनों का भारत बनाने के लिए जो देश के वंचित तबकों के साथ मिलकर संघर्ष कर रहे हैं उनको राष्ट्रद्रोही बता कर जेल में डाला जा रहा है। लगता है जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की बात करना अपराध घोषित कर दिया गया हो। स्वतंत्रता आंदोलन के आजादी मिलने के 73 वर्ष के भीतर ही स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की बात करना राष्ट्रद्रोह कैसे हो गया ?
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शायद यह इसलिए हुआ कि भारत के संविधान में तो आजादी के आंदोलन के मूल्यों के अनुरूप समाज बनाने और देश चलाने का प्रयास किया गया लेकिन देश में स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को मानने वाली पार्टियां लगातार कमजोर होती और बिखरती चली गई।
सर्वोच्च न्यायालय की रीढ़ भी कमजोर दिखलाई पड़ रही है। न्यायपालिका और मीडिया कार्यपालिका की तरह सरकार के साथ खड़ी दिखलाई पड़ रही है। इस स्थिति को अब जनशक्ति के माध्यम से ही बदला जा सकता है परंतु तब जबकि इसकी जरूरत शिद्दत से महसूस की जाए।

(डॉ सुनीलम समाजवादी चिंतक हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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