अंतरजाल पर हिंदी की धमक

प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
आज भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया बहुत तेजी से पास आती जा रही है। इस प्रक्रिया में इंटरनेट की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। दुनिया भर में आज मुद्रित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं पर वर्चस्व का संकट उत्पन्न हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से इंटरनेट आम पाठक तक पहुंच गया है। ऐसी स्थिति में विश्व अंतरजाल पर हिंदी की धमक बहुत तेजी से बढ़ी है और हिंदी ने अपनी प्रभावशाली उपस्थिति इंटरनेट पर प्रदर्शित कर दी है। आज विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अधिसंख्य लोग अपनी मातृभाषा में ही अपने विचारों को व्यक्त करना चाहते हैं और कर रहे हैं। हम इंटरनेट पर निरंतर सक्रिय विभिन्न काव्य और विचार समूहों की बढ़ती हुई वैचारिक सहभागिता से इंकार नहीं कर सकते। आज अनेकानेक पटलों पर लोग अपनी रचनाएं लिख रहे हैं। बड़ी संख्या में लेखक, कवि, व्यंग्यकार ,चिंतक और सामाजिक विवेचक अपने विचारों को हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं। अब हिंदी बहुत तेजी से अपना विस्तार कर रही है संपूर्ण विश्व में आज अंतरजाल में हिंदी की सहभागिता बहुत अधिक हो गई है। यह कदम निश्चित रूप से स्वागत योग्य है।

आज हिंदी को अब पिछड़ेपन का सूचक नहीं माना जाता। अंग्रेजी को भले ही थोड़े से गिने चुने 05 से 10% लोग जो अपनी मातृभाषा के रूप में इसे स्वीकार करते हैं अथवा वे इसे एन केन प्रकारेण बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें यदि हम छोड़ दें तो अब हिंदी की ही धमक है, हिंदी की ही चमक है और आज भारत मां के भाल की बिंदी हिंदी ही है। जितने भी समृद्ध देश हैं फ्रांस ,संयुक्त अरब अमीरात, रूस, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, इजरायल या फिर सोवियत संघ से अलग हुए यूरोप के देश इन सब में अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी जाती है और शासन तथा न्यायपालिका के कार्य भी अपनी भाषा में ही होते हैं तो क्या सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत में जहां बहुसंख्यक लोगों लोग हिंदी बोलते हैं ,हिंदी समझते हैं और हिन्दी ही संपर्क भाषा है तो हम हिंदी को क्यों नहीं अपना सकते ? केवल 5 या 10 प्रतिशत लोगों के लिए हम हिंदी को कुर्बान तो नहीं कर सकते।

आज स्थिति यह है कि इंटरनेट के विभिन्न पटलों और फेसबुक साहित्यिक समूहों पर हिंदी की गूंज है। इस कोरोना काल में एकल काव्य पाठ की जीवंत सलिला प्रवाहित हो रही है। ये सभी समूह प्रतिदिन प्रतिष्ठित और नवोदित साहित्यकारों को सामने ला रहे हैं। उनकी कविताएं सुनी जा रही हैं, उन्हें सराहा जा रहा है। हिंदी का वर्चस्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अब यह बात बहुत पुरानी हो गई जब यह कहा जाता था कि इंटरनेट अथवा फेसबुक पर लिखा जाने वाला साहित्य मुद्रित साहित्य से कमतर होता है। अब ऐसा बिल्कुल नहीं है, अब समय बदल चुका है, गंगा की धारा में बहुत पानी बह चुका है, लोगों की विचारधारा बदल चुकी है। जीवन शैली बदल चुकी है। सब कुछ बदल गया है। अब जो सृजन इस आभासीय दुनिया की हिंदी में हो रहा है, वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए। पुरानी विचारधारा को बदलना होगा। आज अंतरजाल पर हिंदी छाई हुई है। हम इसे कैसे अनदेखा कर सकते हैं ?
इधर साहित्य में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मुक्तिबोध ने कहा था, ‘एक कला सिद्धांत के पीछे एक विशेष जीवन दर्शन होता है’। आज हिंदी की आधुनिक कविताओं पर भले ही पाश्चात्य प्रभाव की चर्चा लोग कर सकते हैं, किंतु अंतरजाल के हिन्दी साहित्य की वास्तविकता यह है कि लेखन अब गांव की माटी को विश्व पटल पर ले आया है। आज ग्रामीण अंचल की बात की जा रही है, कभी गांव से शहर की ओर की बात होती थी और आज शहर गांव की ओर लौट रहा है। आज हम सब गांव की जीवन शैली आत्मीयता और सहज संप्रेषणयुक्त सुलभ बोली, भाषा, रहन-सहन, फिर से पाना चाहते हैं। बड़े शहरों में केवल कंक्रीट के बड़े-बड़े जंगल हैं, वहाँ शीशे के बड़े-बड़े आलीशान भवनों में मनुष्य नहीं यांत्रिक जीवन जीनेवाले निवास करते हैं। आज की इंटरनेट की कविताएं गांव की, देश की, राष्ट्र की सीमा की, सुरक्षा की और हमारे स्वर्णिम इतिहास की अनूठी कहानी फिर से दोहरा रही हैं, निश्चित रूप से यह हिंदी के लिए बहुत अच्छे दिन हैं।
भारतीय भाषाओं के इंटरनेट प्रयोग के संबंध में कई रोचक जानकारियां सामने आई हैं। जैसे 10 में से 09 प्रयोगकर्ता इंटरनेट में अंग्रेजी की जगह अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करते हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय कि एक जानकारी के अनुसार भारत में 12 साल से ऊपर का हर तीसरा आदमी इंटरनेट पर है। हम यह देखते हैं कि इंटरनेट पर हिंदी के प्रयोग ने अंग्रेजी को पीछे छोड़ दिया है। आज विभिन्न साहित्य पटल, काव्य मंच, विचार मंच, विचारोत्तेजक गोष्ठियों, वेबीनार इत्यादि के माध्यम से हम सब परस्पर जुड़ गए हैं और यह विस्तृत आकाश सिमट कर हमारे आंगन में आ गया है। निश्चित रूप से यह एक सुखद सवेरे की अनुभूति है।
अपने आप में एक बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। बताया जाता है कि भारत में फिलहाल 25 करोड़ लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। अब इंटरनेट का दायरा महानगरों – शहरों से निकलकर गांव – कस्बों तक पहुंच रहा है। सरकार की महत्वाकांक्षी ब्रॉडबैंड परियोजना अपने लक्ष्य को सफल रूप से प्राप्त करने करती हुई दिखती है। जब भारत की लगभग 90 % आबादी को अंग्रेजी नहीं आती तो देश की बड़ी आबादी तो तभी इंटरनेट से जुड़ेगी जब वह अपनी भाषा का इस्तेमाल करें और जैसा कि हम जानते हैं कि अपनी भाषा के मामले में हिंदी भारत में शीर्ष पर है। अब अनेक ब्लॉगर ,लेखक, विचारक ,साहित्य प्रेमी और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग इस अभियान को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इस संकल्प यज्ञ में अपनी आहुति दें अपना अवदान दें और इसे आगे बढ़ाएं लैपटाप ,कम्प्यूटर और मोबाइल के माध्यम से देवनागरी लेखन आसान हो गया है। यूनिकोड के माध्यम से हिंदी टाइपिंग संभव है तो इस दिशा में निश्चित रूप से अभी कुछ और प्रयास करने की जरूरत है।
अंतर्जाल पर हिन्दी साहित्य सहज है, सुलभ है और सस्ता भी। खुरदरी भाषा के नवगीत हमें जमीन से जोड़े रखते हैं। अब आकाशचारी कल्पना के दिन गए। हम गाँव की बखरी, खेत, खलिहान, शहर के बिजली, पानी, प्रदूषण की चर्चा इंटरनेट पर अपनी हिन्दी की कविताओं में करते हैं, देखें कुछ पंक्तियाँ –
टोंटी खुली रही नलके की,
झरने लगे कवित्त
किस भावक के हैं ये साधो,
सभी कवित्त निमित्त
बूँद-बूँद से घट भरता है
आखर-आखर काव्य
समझौता फिर प्रेम-द्वेष में
साधो, है संभाव्य-
अंतःकरण सुखी कब होता
उनको रचकर बंधु,
पुस्तक छपने में भी काफ़ी
खरचा होता वित्त
(पंकज परिमल )
अब हम अपने भावों और अभावों को उन्मुक्त होकर व्यक्त करते हैं। अंतरजाल पर प्रकाशित एक नवगीत के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं –
लिखी तूलिका से लहरों पर जब जब हमने प्यास,
कैनवास कविता का होता गया समंदर पास,
अंतर्द्वंद्व सहेजा उर में
मुट्ठी में तूफ़ान ,
अपने हर भाव पर हमने
किया अमित अभिमान !
हार-जीत का निर्णय छोड़ा
प्रबल हवा के संग ,
उर्मि चंचला का अपनापन
दे कर गया उजास !
( प्रो. विश्वम्भर शुक्ल )
कविता और साहित्य की यह अविरल धारा मुक्त रूप से बहती रहे। हम पुरानी सोच को बदलें कि मुद्रित साहित्य ही श्रेष्ठ है और फेसबुक या अंतरजाल का साहित्य कमतर है। आज न तो किसी के पास इतना समय है कि पुस्तकालय खंगाले और न ही इतने संसाधन कि नई नई पुस्तकें खरीद कर पढ़ सके। ऐसे में अंतर्जाल पर उपजा इंटरनेट हिन्दी अवतार हमारे लिए नव तकनीक का अनमोल उपहार है।
कवि दुष्यंत कुमार ने कहा था –
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है,
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है !
हिन्दी का उजाला बिखेरने वाले इस दीपक को हमें निरंतर प्रज्वलित रखना है।
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